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________________ सविपाक एवं अन्य अविपाक । सविपाक निर्जरा कर्मों के उदय से होती है एवं अविपाक निर्जरा तपश्चरण से होती है । सविपाक निर्जरा बिना प्रयल के ही होती है एवं समस्त जीवों के होती है, इसलिये वह त्याज्य है तथा अन्य अविपाक निर्जरा मुनियों को ही होती है, मोक्ष प्रदाता है; इसलिये वह ग्रहण करने योग्य है । रत्नत्रय के द्वार प्रयत्नपूर्वक जो जीव-पुद्गल का सम्बन्ध पृथक हो जाता है (समस्त कर्मों का नाश हो जाता है) उसको मोक्ष कहते हैं। वह मोक्ष अनन्त सुख प्रदायक है। जिस प्रकार पग (पैर) से शीश (मस्तक) तक बंधनयुक्त प्राणी को मुक्तकर देने से उसे अपार सुख अनुभूत होता है, उसी प्रकार कर्मों का विनाश होने से सज्जनों को अनन्त सुख प्राप्त होता ना है। इसलिये चतुर पुरुषों को अनन्त सुख प्राप्त करने के लिए विशेष प्रयल से कठिन तपश्चरण का पालन कर अति शीघ्र चिरस्थायी मोक्ष की सिद्धि कर लेनी चाहिये।' इस प्रकार भगवान श्री शान्तिनाथ ने सभासदों को सम्यग्दर्शन विशुद्ध करने के लिए विस्तार पूर्वक नेदों के संग उपरोक्त वर्णन के अनुसार सप्त तत्वों का निरूपण किया । इन्हीं सप्त तत्वों में पुण्य-पाप के योग से पदार्थ हो जाते हैं। ये चेतन एवं अचेतन रूपी पदार्थ मनुष्यों के सम्यक्ज्ञान की वृद्धि (पुष्टि) करनेवाले हैं । इसके उपरान्त भगवान श्री शान्तिनाथ ने समस्त जीवों का उपकार करने के निमित्त उस सभा में पुण्य-पाप के कुछ कारण स्पष्ट किए। ___नरक में उत्पन्न होना, क्षुद्र पशु-पक्षियों में उत्पन्न होना, नेत्रहीन-बधिर होना, विकलांग (अंग-उपांग-रहित) होना, रुग्ण व कुशील (व्यभिचारी) होना, निम्न जाति व निम्न कुल में जन्म लेना, कुरूपी व समस्त को अप्रिय लगनेवाला होना, कुमरण होना, दरिद्री या निन्द्य या कातर अथवा नीच होना, कुमाता या कुपिता या दुष्टा स्वी अथवा शत्रु सम भ्राता, कुपुत्र या कुशील कन्या या कपटी मित्र या दुष्ट सेवक अथवा अशुभ भवन आदि अनिष्टकारी पदार्थों का संयोग होना, अशुभ परिणाम होना, मुख से दुर्वचन उच्चरित करना, माता-बन्धु आदि इष्ट पदार्थों का वियोग होना, चन्चलता बनी रहना एवं अशुभ काया प्राप्त होना आदि समस्त पाप के निमित्त जीवों को प्राप्त होते हैं, संसार में उन समस्त को पापों का ही फल समझना चाहिए।' तीर्थंकर भगवान श्री शान्तिनाथ ने इस | || २५७ प्रकार पाप का फल वर्णित कर तत्पश्चात् पुण्य के कारणभूत उत्तम आचरणों का वर्णन किया । सर्वप्रथम जो पाप के कारण उल्लेखित हैं, उनके विपरीत कार्य करना, व्रतों का पालन करना, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का पालन करना, तपश्चरण-नियम-यम पालन करना, महापात्रों को चार प्रकार का दान देना, भगवान श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, धर्मोपदेश देना, संवेग वैराग्य आदि का चिन्तवन करना, कायोत्सर्ग धारण करना, शभ ध्यान करना, 4 Fb FB
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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