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________________ FF FRE एवं जो घड़ी-घण्टा-दिन रूपी है, उसको व्यवहार काल कहते हैं । आकाश के एक-एक प्रदेश पर काल का एक-एक परमाणु रत्नों की राशि के समतुल्य पृथक-पृथक स्थित है, उन समस्त असंख्यात कालाणओं को निश्चय काल कहते हैं । धर्म-अधर्म, जीव एवं लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं, पुद्गल के प्रदेश अनेक प्रकार हैं, संख्यात-असंख्यात अनन्त हैं; परन्तु काल का एक ही परमाणु है । इसलिये काल के अतिरिक्त शेष को द्रव्यकाय कहते हैं । उन्हीं पाँचों को पन्चास्तिकाय कहते हैं-जो स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण सहित हैं । इसलिये जो मूर्त है, उसको पुद्गल कहते हैं । इस प्रकार तीर्थंकर भगवान पाँचों अजीव तत्वों का पृथक-पृथक निरूपण कर पुनः बुद्धिमानों के लिए शेष तत्वों का निरूपण करने लगे-'आत्मा के जिन भावों से कर्म आते हैं, उनको भावास्रव कहते हैं एवं कर्मों के आस्रव (आने) को द्रव्यास्रव कहते हैं । पंच मिथ्यात्व, पंच अव्रत, पंद्रह प्रमाद, पच्चीस कषाय एवं पद्रह योग-ये समस्त भावास्रव के भेद हैं। जिनागम में आत्मकल्याण हेतु इन समस्त को त्याज्य वर्णित किया है। सर्वप्रथम शुभ धर्मध्यान से पाप कर्मों के आस्रव का त्याग करना चाहिये एवं तत्पश्चात् मुनियों को शुक्लध्यान के द्वारा शुभ कर्मों के आस्रव का भी त्याग करना चाहिये । जीवों के जिन रागादिक परिणामों से प्रति समय कर्म बँधते रहते हैं, उसे भगवान ने भाव-बन्ध बतलाया है । जीव के प्रदेश एवं कर्म परमाणुओं का परस्पर जो सम्बन्ध होता रहता है, उसको द्रव्य-बन्ध कहते हैं । इस द्रव्य-बन्ध को शास्त्रों में अनेक प्रकार से दुःख प्रदायक वर्णित किया गया है । यह बन्ध चार प्रकार है-प्रकृति-बन्ध, प्रदेश-बन्ध, स्थिति-बन्ध एवं अनुभाग-बन्ध । इनमें से प्रकृति-बन्ध एवं प्रदेश-बन्ध जीवों की मन-वचन-काय की क्रिया से होता है एवं स्थिति-बन्ध तथा अनुभाग-बन्ध कषायों से होता है । यद्यपि पाप कर्मों की अपेक्षा पुण्य बन्ध ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि वह सुख प्रदायक है, परन्तु वह सुख वास्तविक सुख नहीं है । इसलिये ज्ञानियों को वह भी त्याग करने योग्य ही है । जो आत्मा का परिणाम कर्मों के.आस्रव को निषेधवाला है, उसको भाव सम्वर कहते हैं एवं ||२५६ जो कर्मों का निषिद्ध हो जाना है (नहीं आना है ) उसको द्रव्य सम्वर कहते हैं । पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षायें, द्वादश परीषह जय एवं पंच प्रकार का संयम या चारित्र-ये समस्त भाव सम्वर के कारण हैं । इसलिये मन एवं इन्द्रियों को कच्छप के समतल्य अपने वश में कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्नपूर्वक चारित्र पालन कर सम्वर धारण करना चाहिये । निर्जरा दो प्रकार की है-एक 446494.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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