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कुअवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, चक्षुज्ञान, अचक्षुदर्शन एवं अवधिदर्शन- ये सभी समस्त संसारी जीवों के रहनेवाले वैभाविक गुण हैं तथा केवलज्ञान एवं केवलदर्शन- ये दो स्वाभाविक गुण हैं । व्यवहारनय से यह जीव कर्मों का कर्ता है तथा कर्मानुसार अनेक प्रकार के सुख- दुःख रूपी फलों का भोक्ता है। निश्चयनय से न तो यह कर्मों का कर्ता है एवं न उनके फलों का भोक्ता है । व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है एवं सदैव संसार परिभ्रमण किया करता है, परन्तु निश्चयनय से यह जीव अमूर्त है तथा संसार में परिभ्रमण नहीं करता है, निश्चयनय से यह जीव शुद्ध चैतन्य स्वरूप है । इस जीव के प्रदेशों में दीपक के प्रकाश के सदृश संकुचित एवं विस्तृत होने की शक्ति है, इसलिये यह सप्त समुद्घातों के बिना सदैव कर्मानुसार प्राप्त हुए लघु या विराट काया ( छोटे-बड़े शरीर ) के प्रमाण के ही समान रहता है। विद्वानों ने पर्याय ति की अपेक्षा से जीव को उत्पाद एवं व्यय-स्वरूप भी बतलाया है, परन्तु निश्चयनय से यह सदा असंख्यात प्रदेशी है । कर्मों के नष्ट हो जाने पर ऊर्ध्वगमन स्वभाव होने के कारण यह जीव ऊपर को ही जाता है; ना परन्तु कर्म सहित होने के कारण पराधीन होकर चारों गतियों में परिभ्रमण करने के लिए समस्त दिशाओं में गमन करता है । मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले जीवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए राग-द्वेष आदि सर्व विकारों को नष्ट कर यह जीव द्रव्य ही उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) होता है । अन्य संसारी जीव संसार पु में परिभ्रमण करनेवाले जीव को उपादेय नहीं समझते । इसलिये ज्ञानी पुरुषों को अपने ज्ञान के द्वारा
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तपश्चरण एवं रत्नत्रय रूपी शस्त्रों के द्वारा कर्मों को नष्ट कर शीघ्र ही अपनी आत्मा को इस काया से पृथक कर लेना चाहिये।' इस प्रकार जीव तत्व के व्याख्यान से समस्त सभासदों को आनन्द उत्पन्न करा कर भगवान पुनः अजीव तत्वों का व्याख्यान करने लगे- 'बुद्धिमानों ने अंगपूर्वी में धर्म, अधर्म, आकाश, काल एवं पुद्गल - ये पंच प्रकार के अजीव तत्व वर्णित किए हैं। मत्स्यों के गमन (चलने) में जल सहायक होता है, तो जल को धर्म द्रव्य कहते हैं । यह धर्म द्रव्य नित्य है, अमूर्त है एवं गुणी है। जो जीवादि द्रव्यों को स्थान दे, वह आकाश है। लोक- अलोक के भेद से उसके दो भेद हैं; वह अमूर्त है, नित्य हैं एवं महान् या व्यापक है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल-ये पंच द्रव्य जितने आकाश में विद्यमान हैं, उसको लोकाकाश कहते हैं एवं उससे आगे चतुर्दिक जो अनन्त आकाश का विस्तार हुआ है, उसको अलोकाकाश कहते हैं । जो द्रव्यों के नवीन रूप (वर्तमान) से प्राचीन रूप (भूतकाल ) में परिवर्तन होने के कारण है
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