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________________ 44. स्तुति करता हूँ। भगवान श्री शान्तिनाथ तीनों लोकों के भव्य प्राणियों को शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, धार्मिकगण भगवान श्री शान्तिनाथ का आश्रय लेते हैं, भगवान शान्तिनाथ के उपदेश द्वारा ही मोक्ष सुख प्राप्त होता है । शान्ति प्राप्त करने | की कामना से मैं भगवान श्री शान्तिनाथ को नमस्कार करता हूँ। देखो ! भगवान श्री शान्तिनाथ ने पूर्व भवों (जन्मों) में धर्मसाधन किया था, इसलिये उन्होंने मनुष्यों एवं देवों को सुलभ विविध प्रकारेण सुखों का अनुभव किया था । उन्होंने द्वादश (बारह) जन्म तक अनेक विभूतियाँ प्राप्त की थीं एवं अन्त में अविचल मोक्ष पद प्राप्त किया । यही चिन्तवन (समझ) कर विवेकीजन को स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्रदायक धर्म के पालन में सर्वदा तथा निरन्तर ही उत्तरोत्तर अधिक प्रयत्नशील होना चाहिये। जो श्री सिद्ध भगवान प्रबुद्ध हैं, प्रसिद्ध हैं, समस्त जीव जिनको नमस्कार करते हैं, जो लोक शिखर पर विराजमान है, लोकोत्तर हैं, अनन्त (पूर्ण) सुखी हैं, जिन्होंने संसार का समन मोह त्याग दिया है, जो अव्याबाध स्वरूप (समस्त प्रकार की बाधाओं से रहित) हैं, जो अरूपी हैं, निर्मल हैं, अनन्त गुणों से सुशोभित हैं एवं ज्ञान कायिक (शरीरी ) हैं-ऐसे सिद्ध भगवान की मैं अपने हृदय में स्थापना करता हूँ एवं उनकी स्तुति करता हूँ। वे श्री सिद्ध भगवान हमें भी सिद्ध पद प्राप्त करायें। श्री अरहन्तदेव का जो शासन ज्ञानमय है, भगवान श्री सर्वज्ञदेव के मुखारविन्द से प्रगट हुआ है, गुणों का आगार (घर) है, समस्त संसार को प्रकाशित करने के लिए दीपक के समतुल्य है, सर्व प्राणियों का हित करनेवाला है, अज्ञान का निवारण करनेवाला है, धर्म का स्वरूप प्रकट करनेवाला है, मुनिराज भी जिसकी सेवा करते हैं, देव भी जिसकी पूजा करते हैं, जो सारभूत अमृत के सदृश है, अत्यन्त निर्मल है, स्वर्ग-मोक्ष के सुख का प्रदाता है एवं संसार के समस्त भव्यजनों का जो सर्वदा शरणभूत है, ऐसे श्री अरहन्तदेव का शासन सदैव जयवन्त रहे । अल्प बुद्धि धारण करनेवाले मेरे (सकलकीर्ति मुनिराज) के द्वारा विशेष उद्योग (प्रयत्न) से श्री शान्तिनाथ स्वामी का जो यह निर्मल चरित्र वर्णित किया गया है-वह चिरकाल तक युग पर्यंत वृद्धि को प्राप्त होता रहे । यह भगवान श्री शान्तिनाथ का चरित्र समस्त प्रकार के रागादि विकारों का निवारण करनेवाला है, व्रत धारण का कारण है, धर्म का स्थान है, गुणों की खान है एवं रागादिक विकारों से सर्वथा रहित है; इसलिये वीतराग मुनियों को सर्वदा इसका अध्ययन करना चाहिये । गुणीजनों में चतुर जो मुनि श्रेष्ठ धर्म के बीज रूप इस पूर्ण शास्त्र को अपने शुद्ध परिणामों से पढ़ते हैं या पुण्यवृद्धि के लिए धर्मसभाओं में इसका 4 Fb PFF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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