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कोण या खण्ड थे. उनमें प्रत्येक खण्ड में तीन-तीन के योग से कुल मिला कर द्वादश (बारह) कक्ष (कोठे) थे । उनमें पूर्व दिशा के प्रथम कक्ष (कोठे) में मुनिराज थे, द्वितीय में कल्पवासिनी देवियां थी, तृतीय में आर्यिका एवं श्राविकायें थीं, चतुर्थ में ज्योतिषी देवों की देवांगनायें थीं, पंचम में व्यन्तरी देवियाँ थीं, षष्ठ में भवनवासिनी देवियाँ थीं, सप्तम में भवनवासी देव थे, अष्टम में व्यन्तर देव थे, नवम में ज्योतिषी देव थे, दशम में कल्पवासी देव थे, एकादश में मनुष्य थे एवं द्वादश में पशुगण थे । इस प्रकार अनुक्रम से ये प्राणी बैठे हुए थे । यह द्वादश प्रकार का संघ तत्वों के श्रवण की अभिलाषा रखता है, यह जानकर गणधर देव (बुद्धिमान चक्रायुध) उठे एवं भगवान के सम्मुख करबद्ध खड़े होकर तत्व जिज्ञासा के अभिप्राय से मनोहर वाणी में भगवान की स्तुति करने लगे-'हे देव ! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं, गुरुओं के भी महागुरु हैं, आप दुःख से त्रस्त प्राणियों के सरंक्षक हैं एवं आप ही सज्जनों के लिये धर्मोपदेशक हैं । हे स्वामिन् ! ज्ञानावरण कर्म नष्ट होने से लोक-अलोक में विस्तीर्ण (फैली हुई) तथा समस्त तत्वों को प्रकाशित करनेवाली आपकी ज्ञान रूपी ज्योति आज पूर्ण रूप से प्रकाशमान हो रही है । हे जगतगुरु ! आपका केवलदर्शन लोकाकाश-अलोकाकाश दोनों में व्याप्त होकर अनन्त पदार्थों को हस्तरेखा के समतुल्य प्रखर उद्भासित कर रहा है । हे जिनेन्द्र ! अन्तराय कर्म के नष्ट होने से प्रगट हुआ आपका अनन्त महावीर्य समस्त लोक का उल्लंघन कर विराजमान है । हे नाथ ! आपका अनन्त सुख भी बड़ा ही विचित्र है । वह आत्मा से उत्पन्न हुआ है, अन्त रहित है, अव्याबाध (समस्त प्रकार की बाधाओं || रा से रहित) है, अतीन्द्रिय है एवं अत्यन्त निर्मल है । हे देव ! आपके अनुग्रह से भव्य जीव आपका धर्मोपदेश सुनकर तपश्चरण के द्वारा कर्मों को नष्ट कर शाश्वत मोक्ष पद में विराजमान होते हैं । हे प्रभो ! जिस प्रकार जलपोत के बिना समुद्र से पार होना सम्भव नहीं है, उसी प्रकार हे यतीश ! आपके बिना इस संसार रूपी कूप से मनुष्यों को बाहर कोई नहीं निकाल सकता । हे नाथ ! इन भव्य (आत्मा) रूपी खेतों के मुख पाप रूपी सूर्य की उष्णता से मुरझा गये हैं । इनसे.फल प्राप्त करने के लिये धर्मोपदेश रूपी अमृत से इनका सिंचन आप ही कर सकते हैं । हे देव ! जिस प्रकार पिपासा से तृषित चातक मेघ वर्षण का जल ही चाहता है, उसी प्रकार ये भव्य जीव मोक्ष प्राप्त करने हेतु आप से दिव्य ध्वनि रूपी अमृत चाहता है । हे स्वामिन् ! जब तक आपके ज्ञान रूपी सूर्य का उदय नहीं होता, तब तक मनुष्यों के हृदय में प्रशस्त
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