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944 लभ
अथानन्तर-इन्द्रादिक देवों ने कुबेर के द्वारा निर्मित अत्यन्त मनोज्ञ तथा त्रिभुवन की समस्त ऋद्धियों के समूह के समतुल्य उस समवशरण को जैसे ही दूर से देखा, तब श्रद्धा से गद्गद् होकर उन्होंने 'जय-जयकार' की, उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी । तत्पश्चात् भगवान के दर्शन करने के निमित्त वे अत्यन्त प्रसन्नता से समवशरण से प्रविष्ट हुए । समवशरण में प्रवेश कर भगवान का दर्शन करते ही उनके हृदय में विभिन्न शंकाएं (कल्पनाएँ) उठने लगीं-'क्या यह पुण्य-परमाणओं का मूर्तिमान पन्ज है या केवलान रूपी श्रेष्ठ ज्योति ही बाहर प्रकट हो रही (निकल आयी) है ? क्या यह तीर्थंकर का प्रताप है या तेज की निधि है ? क्या यह यश की राशि है या साक्षात् तीन लोक के नाथ भगवान शान्तिनाथ ही हैं ?' इस प्रकार स्वयं तर्कवितर्क करते हुए सौधर्म इन्द्र ने समस्त इन्द्रगणों, देवगणों एवं देवियों के संग गणधरों से | आवृत्त (घिरे हए) चतर्मख रूप में विराजमान भगवान श्री शांतिनाथ के दर्शन किए । शक्ति एवं राग के वशीभूत स्वर्गों के इन्द्रों ने मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा से देव-देवियों के संग हाथ जोड़ कर मस्तक से लगाये-लगाये उन जगत्गुरु की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, मुकुट से सुशोभित अपने मस्तक को नवा कर उन्हें प्रणाम किया एवं भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की । बारम्बार उन्हें नमस्कार किया एवं तदुपरांत अपने हृदय को भगवान के गुणों में अनुरक्त कर अपने-अपने हाथ जोड़ कर मस्तक पर रक्खे । तदनन्तर उन इन्द्रों ने भक्ति के भार से ही मानो अपना मस्तक नवाया एवं एक सौ आठ सार्थक नामों से भगवान की स्तुति की एवं निवेदन किया___हे नाथ ! इस स्तुति के फल से परलोक में तो हमें आप की समस्त विभूतियाँ प्राप्त हों ही, परन्तु इहलोक में भी रत्नत्रय की प्राप्ति शीघ्र हो । हे देवाधिदेव ! हे गणधरदेव ! हम आप के चरणकमलों में श्रद्धापूर्वक नमस्कार करते हैं । आप ज्ञान रूपी समुद्र में पारंगत हैं, आप तीनों लोकों में पूज्य हैं, आप सर्वदर्शी हैं, जिन हैं, सुख रूपी समुद्र के मध्य में विराजमान हैं, अनन्त वीर्य को धारण करनेवाले हैं एवं
|२५१ आपही तीनों लोकों को उत्तीर्ण (पार) कराने में सक्षम हैं, चतुर हैं । हे अद्वितीय देव ! आप इस संसार-चक्र से हमारी रक्षा कीजिए।' इस प्रकार इन्द्रों ने अत्यन्त आनन्द से भगवान के सम्मुख खड़े होकर उनकी स्तुति की, मस्तक नवाकर उन्हें बारम्बार नमस्कार किया एवं तदुपरांत अपने-अपने योग्य स्थान में जा विराजमान हए । समवशरण की चारों दिशाओं में चार मार्ग थे। उन मार्गों के अतिरिक्त शेष जो चार