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________________ निर्मल शुक्लध्यान से उसी द्वादशवें गुणस्थान के अन्तिम क्षण में चार दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, पाँच ज्ञानावरण की प्रकृतियाँ एवं पाँच अन्तराय की प्रकृतियाँ नष्ट की । इस प्रकार उन्होंने कर्मों की तिरेसठ प्रकतियों को नष्ट कर उसी समय लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाला अनन्त केवलज्ञान, अनन्त दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यकदर्शन एवं क्षायिक सम्यक्चारित्र-ये स्व एवं पर का हित करनेवाली नव (नौ) केवल-लब्धियाँ प्राप्त की। इस प्रकार भगवान श्री शान्तिनाथ ने छद्मस्थ अवस्था के षोडश वर्ष व्यतीत कर पौष शुक्ला एकादशी के दिवस संध्या के समय तीर्थंकर बनकर देवों से भी श्रेष्ठ महानता प्राप्त की थी। भगवान श्री शान्तिनाथ के घातिया कर्म नष्ट होने पर तथा केवलज्ञान प्रगट होने पर देवों के समूह आकाश में 'जय-जय' शब्द कर रहे थे, देवों के द्वारा बजाये जा रहे नगाड़ों के गम्भीर निनाद (शब्द) से समस्त दिशाएँ व्याप्त हो गयीं (गूंज उठी) तथा आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा होने लगी थी। भगवान के गुण रूपी सागर में ज्ञान रूपी लहरों की अभिवृद्धि होने पर (पूर्ण ज्ञान प्राप्त होने पर) शीतल सुगन्धित वायु मन्द-मन्द प्रवाहित हो रहा था, समस्त दिशाओं के संग आकाश निर्मल तथा मनोहर हो गया था तथा सम्यक्दर्शियों को अपूर्व आनन्द आ रहा था । भगवान के केवलज्ञान प्रगट होते ही इन्द्रगण अपने-अपने निकायों के देवों के संग अपने सिंहासन से उठे तथा कई पग (कदम) आगे चल (बढ़) कर भगवान को परोक्ष में नमस्कार किया। समस्त पापों से रहित, अनन्त गुणों के सागर एवं समस्त संसार के स्वामी श्री जिनेन्द्र भगवान को मैं भी मस्तक नवा कर भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ एवं सर्वदा उनकी स्तुति करता हूँ । इन्द्र की आज्ञा से देवों के संग भक्तिपूर्वक कुबेर आये एवं विविध प्रकार की विभूतिपूर्ण रचना के द्वारा संसार के उत्तम प्राणियों द्वारा सेव्य 'समवशरण' की रचना भगवान श्री शान्तिनाथ की उपदेशना के लिए की । ऐसे भगवान श्री शान्तिनाथ इस संसार में सदा जयवन्त हों। भगवान श्री शान्तिनाथ को इन्द्र आदि समग्र देव एवं समस्त मुनिराज भक्तिपूर्वक अपने शीश नवाकर नमस्कार करते हैं । जो सर्वज्ञ हैं, जिनेन्द्र हैं, संसार रूपी समुद्र से उत्तीर्ण करानेवाले हैं त्रिलोक विजयी हैं, धर्मोपदेश देने में तत्पर हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं एवं सम्पूर्ण गुणों की अक्षय निधि हैं, ऐसे भगवान श्री शान्तिनाथ की स्तुति मैं उनकी शक्ति-सामर्थ प्राप्त करने के लिए करता हूँ। जो सर्वज्ञ हैं, दिव्य आकृति को धारण 4 Fb EF २४८
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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