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करनेवाले हैं, जिनकी पूजा समस्त देवगण करते हैं, जो भव्य जीवों के अलौकिक बन्धु हैं, कल्याणमय हैं, कल्याण के कारण हैं, समस्त शत्रओं को परासत करनेवाले हैं, अत्यन्त धीर-वीर हैं, उत्कृष्ट तपस्वी मुनियों के आराध्य है, निखिल गुणों के समद्र हैं, प्रपन्च रहित हैं, जिनेन्द्र हैं एवं समस्त संसार जिनकी वन्दना करता है-ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं उनका अतिशय प्राप्त करने की अभिलाषा से मस्तक नवाकर सदैव नमस्कार करता हूँ।
श्री शान्तिनाथ पुराण में दीक्षा-कल्याणक एवं केवल ज्ञान कल्याणक का वर्णन करने वाला पन्द्रहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१५॥
सोलहवाँ अधिकार जो देवों के देव हैं, तीनों जगत के स्वामी हैं.सर्वज हैं. सर्वदर्शी हैं एवं तीनों लोकों का हित करनेवाले हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान को मैं अपने समस्त पाप शान्त करने हेतु नमस्कार करता हूँ। अथानन्तर-असंख्यात देव, गीत-नृत्य करते हुए अपार विभूति के संग अपनी काया एवं आभरणों की कान्ति से गगन को प्रकाशित करते हुए जा रहे थे । देवों के वहतकार नगाड़ों के शब्द एवं 'जय-जय' के कोलाहल के मध्य सानन्द गमन करते हुए धर्मात्मा इन्द्रों ने अन्य देवों (कुबेर के अनुगामी) के शिल्प चातुर्य द्वारा बहुमूल्य रत्नों से निर्मित समवशरण का अवलोकन किया। वह समवशरण त्रिलोक की समस्त विभूति का अनुपम केन्द्र था । यद्यपि इन्द्रादि के निर्देश पर कबेर द्वारा निर्मित उस समवशरण का वर्णन कोई भी शब्दों में नहीं कर सकता तथापि भव्य जीवों का हित करने हेत आचार्य श्री ने संक्षेप में जो वर्णन किया था, वह इस प्रकार है-'चार योजन लम्बा एवं दो कोस चौडा गोलाकार इन्द्रनील महामणियों से निर्मित एक पीठ मध्य में था जिसके चारों ओर एक उत्तंग धलिशाल था-जो पंचवर्णी रत्नों की धूलि से निर्मित था,
|२४९ अत्यन्त विशालकाय था एवं दैदीप्यमान किरणों से आलोकित था-इन्द्रधनुष के सदृश अनेक रंगों से परिपूर्ण था एवं उस पीठ के चतर्दिक अत्यन्त शोभायमान हो रहा था । धूलिशाल की चारों दिशाओं में रत्नों की मालाओं से सुशोभित एवं सवर्ण के खम्भों पर विराजमान तोरण अपनी पृथक शोभा प्रदर्शित कर रहे थे। उन तोरणों से कछ दर आगे चलकर समस्त दिशाओं में मार्ग के मध्य भाग में दिव्य मर्ति को
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