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________________ 54 Fb F EF आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय तथा संस्थानविचय-इन चारों धर्मध्यानों को उन्होंने धारण किया । उन्होंने चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ कर सप्तम गुणस्थान तक के किसी एक बिन्दु (स्थान) पर नरकायु, तिर्यंचायु तथा देवायु-इन तीनों प्रकृतियों को बिना प्रयत्न के ही नष्ट कर दिया था । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ धर्मध्यान के प्रभाव से इस से पूर्वकाल में ही नष्ट हो गई थीं । तब वे उत्तम आत्म-शुद्धियों का चिन्तवन करते हुए सप्तम गुणस्थान में जा पहुंचे तथा मोक्षगृह की नसैनी (सीढी) द्वारा चढ़ कर क्षपक श्रेणी में विराजमान हुए । वे भगवान प्रमाद रहित होकर अनुक्रम से अधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्णकरण तथा अनिवृत्तिकारण गुणस्थान में जा विराजमान हुए। साधारण, आतप, एकेन्द्रिय, द्वीइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय, जाति निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति नरक गत्यानपूर्वी, स्थावर, सक्षम, तिर्यन्चगति, उद्योत, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी-ये षोडश प्रकतियाँ उन्होंने अनिवृत्ति गुणस्थान के प्रथम अंश में ही नष्ट कर दी थी। वे महान् योद्धा भगवान शान्तिनाथ पृथकत्व वितर्क विचार नामक प्रथम शक्लध्यान रूपी अस्त्र को कर (हाथ) में लेकर तथा गुप्ति रूपी कवच धारण कर कर्मों से युद्ध कर रहे थे । उपरोक्त षोडश प्रकृतियों का नाश करने के उपरान्त उन्होंने उसी नवम गुणस्थान के द्वितीय अंश में उसी शक्लध्यान से अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ-ये अष्ट कषाय नष्ट कर दिये थे । तदनन्तर उन्होंने ध्यान के योग से तृतीय अंश में नपंसकवेद. चतर्थ अंश में स्त्रीवेद, पंचम अंश में हास्यरति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा, षष्ठ अंश में नपुंसकवेद, सप्तम अंश में संज्वलन क्रोध, अष्टम अंश में संज्वलन मान, नवम अंश में संज्वलन माया-इन समग्र को नष्ट किया । कर्म रूपी शत्रुओं का नाश करने में उद्यत भगवान ने पुनः विजयभूमि प्राप्त कर दशम गणस्थान में सक्षम साम्पराय नामक चारित्र रूपी तीक्ष्ण अस्त्र के द्वारा सूक्ष्म लोभ को नष्ट कर किया एवं इस प्रकार कर्मरूपी शत्रुओं का विनाश करनेवाले भगवान शान्तिनाथ ने समस्त कषायों को नष्ट कर दिया । इस प्रकार उन्होंने अनन्त गुणों का वर्द्धक द्वादश गुणस्थान प्राप्त कर लिया एवं तत्पश्चात् शेष घातिया कर्म रूपी पापों का नाश करने के लिए उद्यम करने लगे । उस द्वादश गुणस्थान में प्रथम क्षण में उन्होंने एकत्ववितर्क अविचार नाम के द्वितीय शुक्लध्यान से निद्रा एवं प्रचला नामक दो प्रकृतियाँ नष्ट की तथा तदपरान्त यथाख्यात चारित्र धारण करनेवाले उन भगवान ने उसी द्वितीय 4 Fb F BF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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