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________________ श्री ना थ से तल्लीन रहते थे । वे स्वप्न में भी कभी किसी परिग्रह में वांछा (इच्छा) नहीं रखते थे। इसी प्रकार वे गुप्त-समिति आदि समस्त व्रतों से युक्त थे तथा अन्य भी अनेक व्रतों का पालन करते थे । वे पंच महाव्रतों का विशेष प्रयत्न से पालन करते थे तथा उनकी पूर्ण सिद्धि के लिए उनकी पच्चीस भावनाओं का सदैव चितवन किया करते थे । अहिंसा महाव्रत की विशुद्धता के लिए ईर्ष्या समिति, भाषा समिति, ऐषणा समिति, आदान निक्षेपण समिति तथा व्युत्सर्ग समिति - इन पन्च समितियों का चिन्तवन भगवान शान्तिनाथ करते थे । सत्य महाव्रत के लिए क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, हास्य का त्याग तथा शां आगमानुसार वचन कहना - इन पन्च आचरणों का पालन भगवान शान्तिनाथ करते थे । उचित आज्ञानुसार ग्रहण करना, अन्यथा ग्रहण न करना तथा आहार में प्रदत्त भोजनपान में सन्तोष धारण करना अचौर्य व्रत ति की भावना है, इनका भी नियमन वे भगवान करते थे । नारियों की श्रृंगार कथाओं का त्याग, नारियों के लावण्य-सौन्दर्य के अवलोकन का त्याग, पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों के स्मरण तक का त्याग - इस प्रकार ब्रह्मचर्य की पंच भावनाओं का भी वे चिन्तवन करते थे । चेतन-अचेतन रूप, बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह रूप, इन्द्रियों के विषयों में विरक्त होना, परिग्रह त्याग - महाव्रत की शेष भावनाएँ हैं, इनका भी वे चिन्तवन करते थे । महाव्रतों को स्थिर रखने के लिए ये महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं । भगवान श्री शान्तिनाथ प्रतिदिन इनका चिन्तवन किया करते थे । माया, मिथ्या, निदान आदि अनेकानेक शल्य (शंकायें ) शास्त्रों में वर्णित हैं, उन समस्त का त्याग कर भगवान निःशल्य होकर विहार करते थे । इस प्रकार चक्रायुध आदि अनेक मुनियों के संग अनेक देशों का विहार करते हुए भगवान सहसाम्र वन में जा पहुँचे । मोक्ष प्राप्त करने के लिए वे षट दिवसीय उपवास धारण कर नन्द्यावर्त वृक्ष के तले दृढ़ासन से विराजमान होकर ध्यान करने लगे । वे पूर्व दिशा की ओर मुख कर विराजमान हुए, बाह्य निमित्त को प्राप्त कर उन्होंने समस्त चिन्ताओं का निरोध किया तथा सिद्धों के गुण प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम सिद्ध के अष्ट गुणों का ध्यान करने लगे । अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, सम्यक्दर्शन, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्याबाध तथा अगुरुलघुसिद्धों के अष्ट गुण हैं । सिद्ध पद प्राप्त करने की अभिलाषा रखनेवाले तीर्थंकरों तथा अन्य मुमुक्षु मुनियों को इन गुणों का ध्यान करना चाहिये । इसी प्रकार वे भगवान अपने चित्त में धर्मसाधन करनेवाले उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों, सर्व द्रव्य तत्व तथा पदार्थों का चिन्तवन करने लगे। चित्त को शुद्ध करने के निमित्त I - ये पु रा ण 9964 श्री शां ति ना थ पु रा ण २४६
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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