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________________ . 1 4 में पहुँचे । वहाँ के महाराजा सुमित्रं भगवान सदृश महान पात्र (याचक) का शुभागमन देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए । श्रावकों के पुण्य कर्म के ज्ञाता महाराज ने भगवान के चरण कमलों में अपना नमस्कार किया तथा 'तिष्ठ-तिष्ठ' कह कर उन्हें पड़गाहा । श्रद्धा, विनय, शक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा तथा त्याग-दानियों के ये सप्त गण कहे गये हैं । प्रतिग्रह, उच्च स्थान प्रदान, पाद प्रक्षालन, पूजा, प्रमाण वचनशुद्धि, मनशुद्धि, कायशुद्धि तथा आहारशुद्धि-यह नवधा (नव प्रकार की) भक्ति कहलाती है । दानीजन पुण्य सम्पादन करने के लिए भक्ति का आचरण करते हैं । पुण्यात्मा महाराज सुमित्र ने सप्त गुणों से सुशोभित होकर हार्दिक भक्ति से भगवान शान्तिनाथ को प्रासुक, मधुर, मनोहर, रसीला, तृप्तिदायक, सुखद, क्षुधा निवारक त्तथा चारित्रवर्द्धक आहार दिया । उस दान से सन्तुष्ट होकर देवों ने महाराज सुमित्र के राजप्रांगण में बहुमूल्य मणियों की किरणों से व्याप्त रत्नों की वर्षा कर प्रभावना की । समस्त आश्चर्यों || को प्रगट करनेवाली आकाश से गिरती हुई रत्नों की वह स्थल धारा ऐसी प्रतीत होती थी मानो मनुष्यों को आहार दान का अद्भुत फल प्रत्यक्ष ही प्रकट कर रही हो । 'अहो, कैसा उत्कृष्ट दान है, कैसे उत्तम पात्र हैं एवं सर्वगुण विभूषित कैसे भाग्यशाली दाता हैं'-उस दान से सन्तुष्ट होकर देव यह आकाशवाणी कर रहे थे । उस आहार दान से महाराज सुमित्र स्वयं को कृतार्थ मानते हुए अपने कुल को गौरवशाली एवं अपने जन्म को धन्य मानने लगे थे। आचार्य कहते हैं कि मैं तो उत्तम गृह उसी को मानता हूँ, जहाँ मुनिराज अपनी काया की रक्षा के हेतु पधारते हैं। जिस गृह-प्रांगण में आहार के निमित्त मुनिराज नहीं पधारते, वह निष्प्रयोजन है । इस संसार में वे ही गृहस्थ धन्य हैं, जो पात्रों को सर्वदा अनेक प्रकार का दान देते रहते हैं । जो गृहस्थ मुनियों को कभी दान नहीं देते, वे पापी ही हैं । दान से जिस प्रकार इहलोक में लक्ष्मी, सम्मान एवं कीर्ति प्राप्त होती है; उसी प्रकार परलोक में भी स्वर्ग-मोक्ष के अपार सुख प्राप्त होते हैं । अपने आत्मतत्व में तल्लीन रहनेवाले एवं निराश्रय रहनेवाले वे जितेन्द्रिय मुनिराज आहार ग्रहण कर ध्यान करने के हेतु वन को प्रत्यावर्त्तन कर गए । भगवान शान्तिनाथ व्रतों का पालन करने के लिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति-इन पन्च स्थावरों तथा त्रस जीवों की दया का पालन मन-वचन-काय एवं कृत-कारित अनुमोदना से करते थे। मौन धारण किए हुए वे भगवान सम्वर धारण करने के निमित्त सर्वदा सत्यव्रत एवं अचौर्यव्रत में मन-वचन-काय 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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