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अवस्था धारण कर परमेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्थी के दिवस सन्ध्याकाल के समय भरणी नक्षत्र में भगवान श्री शान्तिनाथ ने प्रसन्न होकर दीक्षा धारण की। भगवान ने जिन केशों का लोंच किया था, भगवान के मस्तक पर धारण (निवास) करने के कारण एवं उनकी काया का स्पर्श करने के कारण अत्यन्त पवित्र समझ कर इन्द्र ने श्रद्धा-आदर सहित उन्हें रत्नमंजूषा में रखा तथा विराट विभूति के संग उन्हें ले जाकर क्षीरसागर में निक्षेपित कर दिया । वस्त्र-आभूषण-माला आदि जो-जो वस्तुएँ भगवान ने उतारी थीं, उन्हें भी असाधारण उत्तम समझ कर कर देव अपने संग ले गए । भगवान के संग-संग
चक्रायुध आदि एक'सहस्र राजाओं ने दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर संयम धारण किया था । उन | नव दीक्षित मनियों ने आवत्त घिरे हए) श्री शान्तिनाथ भगवान ऐसे प्रतीत होते थे मानो एक विराटकाय
कल्पवृक्ष अन्य लघुकाय कल्पवृक्षों से आच्छादित हो । तदनन्तर सन्तुष्ट होकर इन्द्र उन तीन लोक के स्वामी एवं परम पद में स्थित भगवान शान्तिनाथ के उत्तम गुणों का यथार्थ वर्णन कर उनकी स्तुति करने लगा । इसी प्रकार अन्य समस्त इन्द्रगण उनकी स्तुति कर के पुण्य सम्पादन करने के निमित्त अपने हृदय में उनके पवित्र गुणों का स्मरण करते हुए अनुगत देवों के संग अपने-अपने स्थान हेतु प्रस्थान कर गए । दीक्षा रूपी रमणी के वशीभूत हुए चक्रायुध आदि भ्राताओं के अतिरिक्त शेष मन्त्री-भ्राता-बन्धु आदि सर्व साधारणजन मन-वचन-काय से उन जगत्बन्धु भगवान शान्तिनाथ को नमस्कार कर अपने-अपने निवास को लौट गये । इधर भगवान मोक्ष प्राप्त करने के निमित्त चित्त को शुद्ध कर मौन धारण कर एवं काया को निश्चल विराजमान कर संकल्प-विकल्प रहित ध्यानस्थ हो गये । इस प्रकार जब उनका छटठा उपवास पूर्ण हो गया, तब वे ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक आहार लेने के लिए निकले । उस समय वे समता धारण किये हुए थे, तीनों प्रकार के वैराग्य का चिन्तवन कर रहे थे, प्रज्ञावान (चतुर) थे, समस्त संसार उनकी वन्दना करता था, चारों ज्ञानों को धारण किये हुए थे एवं निर्दोष आहार संधान (ढूँढ़ने) में तत्पर थे । शान्तिनाथ भगवान अपने सम्मुख चार हस्त प्रमाण मार्ग का निरीक्षण करते हुए गमन कर रहे थे । वे न तो बहुत धीरे चलते थे, न बहुत शीघ्र चलते थे, पैरों को मंद-मंद उठाते व रखते हुए गजराज के सदृश लीलापूर्वक पदचारण करते जा रहे थे । वे मुनिराज (भगवान शान्तिनाथ) मार्ग में केवल काया को स्थिर रखने के लिए आहार-ग्रहणपूर्वक दानियों को सन्तुष्ट करते हुए अनुक्रम से विहार करते-करते मन्दरपुर नामक नगर
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