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________________ श्री श्री शां शां ति ना थ इहलोक एवं परलोक के सर्व कार्यों में समर्थ हैं। अन्य कोई पुरुष ऐसा नहीं हो सकता ।' अन्य कितने ही नागरिक कहने लगे कि भगवान के धर्म का प्रभाव तो देखो, जो इन्द्र भी समग्र देवों के संग इनकी से सेवा कर रहा है । इस प्रकार स्तुतिपूर्ण वचनों से जिनकी प्रशंसा हो रही है, ऐसे वे भगवान अनुक्रम इन्द्र के संग-संग नगर के बाहर जा पहुँचे ॥ २९० ॥ अथानन्तर - भगवान के वनागमन पर उनकी रानियाँ शोक से व्याकुल हो गईं एवं मार्ग में मन्त्रियों को संग लेकर भगवान का अनुसरण करते हुए चलने लगीं । भगवान के वियोग रूपी अग्नि से उनका शरीर दग्ध हो उठा था, उन्होंने अपने समस्त आभूषण उतार दिये थे, उनकी शारीरिक शोभा व्यतीत हो चुकी थी एवं गिरती उठती वे भगवान के पीछे-पीछे चल रही थीं । कितने ही रानियाँ दावानल से दग्ध हुई लता के समान प्रतीत होती थीं, उनकी काया जीर्ण पत्र (पत्ता) के समतुल्य काँप रही थी, मूर्छा आने से उनके नेत्र बन्द हो गए थे एवं वे धराशायी हो पड़ती थीं । इतने में विज्ञपुरुषों ने आकर मधुर वचनों से समझा कर उन रानियों को आगे जाने से निषेध किया एवं कहा- 'आगे मत जाइये, आगे जाने के लिए प्रभु की अनुमति नहीं है।' इस आज्ञा को सुनकर उन्होंने दीर्घ निश्वास ली एवं चित्त में यह दृढ़ निश्चय किया कि वे अब अवश्य ही निर्दोष तपेश्चरण करेंगी । गहन विषादपूर्वक वे अपने महल को प्रत्यागमन कर गईं । संयम रूपी लक्ष्मी के अभिलाषी वे भगवान शान्तिनाथ चक्रायुध आदि अपने भ्राताओं, नगर निवासियों, राजा-महाराजाओं तथा इन्द्र एवं देवों के द्वारा आयोजित किए हुए महोत्सव के संग, जहाँ तक दर्शकों को दृष्टिगोचर हो सके, सुदूर व्योम पथ (वायुमार्ग ) से गमन कर सहसाम्र नामक वन में जा पहुँचे। उस वन में एक शीतल छायावान वृक्ष था, जिसके नीचे एक शिला थी जो देवों ने पूर्व स्थापित कर रख दी थी । वह शिला अत्यन्त विशाल थी । पृथ्वी के समतुल्य उत्तम एवं पवित्र उस शिला को देखकर भगवान शान्तिनाथ वहाँ पालकी से उतरे । उन्होंने मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक मोह को विनष्ट करने के लिए वस्त्र, आभरण, माला तथा क्षेत्र, वस्तु आदि दश प्रकार के बाह्य परिग्रहों से, मिथ्यात्व आदि चतुर्दश प्रकार के अन्तरंग परिग्रहों के संग ही कायादि से तथा समस्त पदार्थों से ममत्व का त्याग किया । तदनन्तर वे स्थिरतापूर्वक पर्यंकासन से उस शिला पर विराजमान हुए एवं फिर उन्होंने सिद्धों को नमस्कार कर पंच मुष्ठियों में केशलोंच किया । सुविज्ञ भगवान शान्तिनाथ ने मोह रूपी बेल के ऊपरी भाग के सदृश केशों का लोंच किया एवं दिगम्बर ना थ पु रा ण पु रा ण २४३
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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