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है, मानो मेरु पर्वत पर श्रेष्ठ जल से भरपूर भगवान के अभिषेक की धारा ही हो ॥५०॥ उस विजयार्द्ध पर्वत पर न तो कभी दुर्भिक्ष होता है तथा न कोई भय होता है । वहाँ पर सदा धर्म से सुशोभित चौथा काल ही बना रहता है। वहाँ की प्रजा तीन वर्णों में बँटी हुई है, वहाँ पर ब्राह्मण वर्ण नहीं है । वहाँ की प्रजा बड़ी भारी विभूति से भरपूर रहती है तथा सदा जैन-धर्म में लीन रहती है । वहाँ पर व्रती - तपस्वी, चारित्र से सुशोभित एवं ज्ञानी, धीर-वीर बहुत-से मुनि विहार करते रहते हैं, वहाँ पर मिथ्यादृष्टि जीव सर्वथा नहीं है । वहाँ पर ऊँचे तथा अनेक तरह की शोभा से सुशोभित तीर्थंकरों के बहुत से जिनालय शोभायमान हैं, वहाँ अन्य देवों के मंदिर कहीं पर दिखाई नहीं पड़ते। उस विजयार्द्ध पर्वत पर श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित सनातन अहिंसा-धर्म की ही प्रवृत्ति सदा बनी रहती है, वहाँ पर वेद आदि में कहे ति हुऐ धर्म की प्रवृत्ति कहीं दिखाई नहीं देती । वहाँ के समस्त मुनि एवं सब गृहस्थ श्री जिनेन्द्रदेव की कही ना हुई जिनवाणी का ही सदा पाठ करते हैं, अन्य मतों की कही हुई वाणीं वहाँ पर कोई पढ़ता - सुनता तक नहीं । वहाँ के वनों में अनेक तरह के फूल खिलते हैं एवं पुण्यवान मनुष्यों के लिए भोगोपभोग की सामग्री वहाँ स्थान-स्थान पर विद्यमान हैं। वहाँ के मनोहर वनों में विद्याधारियाँ अपने पतियों सहित सदा क्रीड़ा करती रहती हैं, फिर भला उस पर्वत का क्या वर्णन करना चाहिए ? वहाँ की बावड़ी कमल-रूपी निर्मल मुखों से सदा हँसती हैं एवं स्त्रियों के समान लहरें रूपी भुजाओं को उठा उठा कर कर बहुत अच्छा नृत्य करती रहती हैं । जिस विजयार्द्ध पर्वत पर देव लोग भी अपनी देवांगनाओं के साथ स्वर्गों से आ-आ कर क्रीड़ा करते हैं, उसकी उत्कृष्ट शोभा का भला क्या वर्णन करना चाहिए? ॥६०॥ उसी विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नाम की एक प्रसिद्ध नगरी है । उस नगरी के चारों ओर रत्नों का कोट हैं, वह नगरी नित्य है, कभी नष्ट नहीं होती, बड़ी मनोहर है एवं मणिमय वेदिका से जम्बूद्वीप की दूसरी पृथ्वी के समान सुन्दर जान पड़ती है । उसके चारों ओर अत्यन्त शीतल तथा गम्भीर (गहरी खाई शोभायमान है, जो कि सदा बनी रहती है एवं दूर से समुद्र के समान जान पड़ती है । जिस प्रकार प्रमाण एवं नय के समूहों से जिनवाणी सुशोभित होती है, उसी प्रकार वह नगरी भी मणियों से जड़े हुए ऊँचे-ऊचे बाहरी दरवाजों से सुशोभित है। उस नगरी के मध्य में भगवान श्री जिनेन्द्रदेव के ऊँचे चैत्यालय विराजमान हैं, जो कि कोई तो सुवर्णमय हैं तथा कोई रत्नों की किरणों से भरपूर हो रहे हैं। वे जिन-मन्दिर बहुत
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