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| हैं, जो कि धन-धान्य आदि से भरपूर हैं एवं जो न कभी उत्पन्न होते हैं एवं न नष्ट होते हैं । इन श्रेणियों में दश योजन ऊँचे चलकर पहिले के समान ही उत्तर-दक्षिण की ओर दो अन्य श्रेणियाँ हैं, जिन पर व्यन्तरों के नगर बसे हुए हैं। फिर पाँच योजन ऊँचे चल कर नौ कूट सब एक-से बने हैं, जो कि अधोभाग के समान ऊँचे हैं । उन में से पूर्व कूट के ऊपर भगवान अरहन्तदेव का अकृत्रिम जिनालय है, जो कि अनेक तरह के रत्नों से जड़ा हुआ है तथा अत्यन्त मनोहा तथा रत्नों के बने हुए श्रृंगार, कलश आदि उपकरणों से धर्म की खान के समान शोभायमान है । वहाँ सब देव पूजा की सामग्री लेकर भगवान की पूजा करने के लिए आते हैं एवं फिर आनन्द में डूब कर पुष्प-वृष्टि करते हैं ॥४०॥ वहाँ पर अनेक विद्याधर प्रतिदिन विमानों में बैठ कर जय-जय शब्द करते हुए श्री जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने के लिए आते हैं । इसी प्रकार गीत गाती हुई तथा नृत्य करती हुई विद्याधारियाँ भी उस जिनालय में भगवान की पूजा करने के लिए आती हैं एवं देवांगनाओं के समान शोभा पाती हैं।
उस चैत्यालय में कितनी ही देवांगनायें नृत्य करती हैं, कितनी ही भगवान की पूजा करती हैं तथा आनन्द के प्रगाढ़ रस में मग्न हुई कितनी ही विद्याधारियाँ वाद्ययंत्र बजाती हैं । कितनी ही बिद्याधारियाँ बड़े उत्सव के साथ भगवान श्री जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करती हैं तथा कितनी ही विद्याधारियाँ भगवान का दर्शन करती हैं । इस प्रकार देव-देवियों से तथा विद्याधर-विद्याधारियों से भरा हुआ तथा गम्भीर शब्दों से भरपूर वह चैत्यालय धर्म-रूपी महासागर के समान जान पड़ता है । कितने ही लोग वहाँ पूजा करने के लिए आते एवं कितने ही पूजा करके वहाँ से बाहर निकलते हैं। इस प्रकार वह चैत्यालय समवसरण के समान शोभा देता है, फिर भला उसका वर्णन कौन कर सकता है ? इस प्रकार अकृत्रिम चैत्यालय से सुशोभित एवं वन-वेदी सहित वह 'सिद्धकूट' नाम का कूट विजयार्द्ध पर्वत पर प्रसिद्ध है । उस कूट के सिवाय बाकी के जो आठ कूट हैं, उन पर वेदी, वन तथा बावड़ियों से सुशोभित देवों के नगर बने हुए है । इस प्रकार भरतक्षेत्र का विभक्त करनेवाला वह विजयार्द्ध पर्वत भरतक्षेत्र के बीच में शोभायमान है, जो कि कुन्द के फूल या चन्द्रमा अथवा शंख के समान सफेद वर्ण का है तथा ऐसा जान पड़ता है, मानो यश की राशि ही हो । वहाँ पर बादलों से होनेवाली वृष्टि सदा सफल ही होती है तथा ऐसी जान पड़ती
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