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________________ 3 FFb F जिन्हें सब संघ नमस्कार करता है तथा तीनों लोक जिनकी सेवा करते हैं, ऐसे लोक-अलोक सबको जाननेवाले तीर्थंकर इसी भरत-क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं । केवल मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही देव लोग भी उस भरत-क्षेत्र के उत्तम कुलों में उत्पन्न होने की इच्छा रखते हैं । उस भरत-क्षेत्र में सब जीवों को सख देनेवाला मुनि एवं श्रावकों का धर्म प्रवर्तमान रहता है, जो कि स्वर्ग में भी दुर्लभ है ॥२०॥ उस भरत-क्षेत्र में ऊँचे-ऊँचे शिखरोंवाले दण्ड एवं ध्वजाओं से शोभायमान धर्म की खान के समान ऊँचे-ऊँचे जिनायल विद्यमान हैं । उस भरत-क्षेत्र में स्थान-स्थान पर निर्वाण भूमियाँ शोभायमान हैं, जो कि पवित्र हैं, मुनि लोग जिनकी सेवा करते हैं तथा जो धर्म की खान के समान जान पड़ती हैं । वहाँ पर धर्मोपदेश देने के लिए अनेक मुनि विहार किया करते हैं, जो कि सज्जनों को अपनी-अपनी इच्छानुसार फल देनेवाले हैं तथा ऐसे जान पड़ते हैं मानो चलते-फिरते कल्पवृक्ष हों । वहाँ पर लोगों को अनेक केवलज्ञानियों के भी दर्शन होते रहते हैं, जो कि चारों प्रकार के संघ सहित विराजमान हैं तथा जीवों के सब तरह के सन्देह दूर करनेवाले हैं । वहाँ पर नगर, खानें, पत्तन, गाँव, द्रोणमुख तथा द्वीप आदि बड़े शोभायमान हैं, जो सब धर्म के स्थान समान जान पड़ते हैं । उस भरतक्षेत्र से श्रावक लोग दान, पूजा, तप, व्रत, संयम आदि पालन कर स्वर्ग प्राप्त करते हैं, तब भला उस भरतक्षेत्र का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? उस भरतक्षेत्र से अनेक मुनीश्वर तपश्चरण कर स्वर्ग जाते हैं एवं अनेक मुनिराज समस्त कर्मों का नाश कर मोक्ष जाते हैं । वह भरतक्षेत्र ऊपर कहे हुए अनेक गुणों से परिपूर्ण है, अनेक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली वस्तुओं से सुशोभित है, बहुत-सी प्रशंसा योग्य वस्तुओं से भरा हुआ है तथा उसका आकार भी शुभ है । उस भरतक्षेत्र के मध्य भाग में उच्च तथा विराट विजयार्द्ध पर्वत शोभायमान है, जो कि शुक्लध्यान के पुन्ज के समान (सफेद) जान पड़ता है । वह विजयार्द्ध पर्वत-पच्चीस योजन ऊँचा है, पचास योजन चौड़ा है एवं ऊँचाई का चौथाई अर्थात् सवा छः योजन भूमि के भीतर है ॥३०॥ उसी विजयार्द्ध पर्वत में पचास योजन लम्बी, आठ योजन चौड़ी दो गुफाएँ हैं, जिनमें द्वार आदि सब लगे हुए हैं । उस विजयार्द्ध पर्वत पर भूमि से दश योजन ऊँचे बढ़ कर उत्तर-दक्षिण दोनों दिशाओं की ओर दो श्रेणियाँ हैं । वे दोनों श्रेणियाँ दश-दश योजन चौड़ी हैं तथा इस समुद्र से उस समुद्र तक लम्बी हैं । उन श्रेणियों में से दक्षिण श्रेणी में पचास नगर बसे हुए हैं तथा उत्तर श्रेणी में साठ नगर बसे हुए हैं। उन नगरों में से प्रत्येक नगर से एक-एक करोड़ गाँव लगे हुए. 4 Fb EF:
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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