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________________ घृणा उत्पन्न करनेवाली है, व्याधि रूपी सर्यों की निवास-स्थल है, भूख-प्यास, काम-कषाय रूपी अग्नि से सन्तप्त है, समस्त अशुद्ध पदार्थों की भण्डार है एवं अन्न-वस्त्र आदि समस्त पवित्र पदार्थों को भी अपने संस्पर्श से अत्यन्त शीघ्र ही अपवित्र बना देती है । इस काया की ऐसी घृणित प्रकृति (स्वभाव) का चिन्तवन कर बुद्धिमानों को घोर तपश्चरण के द्वारा इसे तपा कर शुद्ध कर लेना चाहिये। जिस प्रकार छिद्रयुक्त नौका जल भर जाने के कारण समुद्र में डूब जाती है, उसी प्रकार यह प्राणी कर्मों का आस्रव होने के कारण इस दुष्कर संसार-सागर में डूब जाता है । जिस प्रकार जलपोत से विरक्त होने पर मनुष्य समुद्र में एकाकी असह्य दुःख भोगता है, उसी प्रकार धर्म से अलग होकर यह मूढ़ मनुष्य इस भयानक संसार रूपी समुद्र में अनेक कष्ट भोगता है । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद-ये समस्त कर्म के आस्रव के कारण हैं, ये ही मनुष्यों को संसार रूपी समुद्र में डुबोनेवाले हैं। जब तक मनुष्यों को चतुर्गतियों में परिभ्रमण करानेवाला एवं नानाविध दुःख प्रदायक अशुभ कर्मों का आस्रव होता है, तब तक उन्हें नित्य (शाश्वत) मोक्ष सुख कभी नहीं प्राप्त हो सकता । जिस प्रकार अपराधी पुरुष की कटि को श्रृंखला से बद्ध कर उसे कारागार में पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार कर्मों के द्वारा यह जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता हुआ नरक गति में ले जाया जाता है । जिस प्रकार ऋणी मनुष्य परवश होकर रात्रि-दिन घोर दुःख भोगता रहता है, उसी प्रकार कर्मों के अधीन हुआ यह जीव नरकादि दुतियों में घोर दुःख सहन करता रहता है ॥८०॥ जिस महान पुरुष ने सम्यक्दर्शन, सम्यकचारित्र, संयम, कषाय, निग्रह एवं ध्यान आदि के द्वारा कर्मों का आस्रव अवरुद्ध कर (रोक) लिया, उसी का सकल मनोरथ पूर्ण हुआ है । जो पुरुष तप-चारित्र आदि धारण कर कर्मों के आस्रव को अवरुद्ध नहीं कर सकते, उनका मनुष्य देह धारण करना व्यर्थ है । इसलिये बुद्धिमानों को शुभ ध्यान से पापास्रव को अवरुद्ध करना चाहिये व मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मध्यान से दोनों प्रकार के कर्मास्रव को स्तम्भित करना चाहिये । ऐसा समझ ||२३४ कर बुद्धिमान प्राणी मुक्ति रूपी रमणी की प्राप्ति की अभिलाषा से अपने चित्त का निग्रह कर तथा चारित्र आदि धारण कर. सर्वदा कर्मों के आस्रव को अवरुद्ध करते रहते हैं । इन्द्रिय एवं चित्त से होनेवाला आस्रव संसार रूपी समुद्र में डुबोनेवाला है, मोक्ष से दूर रखनेवाला है, समस्त दुःखों का कारण है, नरक का स्थान है, कुमार्ग में ले जानेवाला है एवं पाप उत्पन्न करनेवाला है । इस प्रकार समझ कर गुणी पुरुष
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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