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________________ 44644. को सब से निराला (भिन्न ) समझ कर मोक्ष का कारण अपनी एकमेव आत्मा का ही सेवन करते हैं । यह काया एवं गृह समस्त आत्मा से भिन्न हैं तथा परिवार-धन आदि भी भिन्न हैं एवं कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए संसार के जितने पदार्थ हैं, वे समस्त भी आत्मा से भिन्न हैं । यही समझ कर बुद्धिमानों को अपनी आत्मा तथा मोक्ष को प्राप्त करने के लिए अपनी ही आत्मा में, अपनी ही आत्मा के द्वारा सदैव अपनी ही आत्मा का ही ध्यान करते रहना चाहिये। . . यह काया शुक्र-शोणित के संयोग से निर्मित है, सप्ताधातुमय है, अपवित्र है, विष्ठा आदि से भरपूर है, निन्द्य है, राग रूपी सर्पो के बिल के समतुल्य है, दुर्गन्धमय है, अत्यन्त घृणित है, असंख्य कीटों से भरी हुई है, अनित्य है । भला ऐसा कौन ज्ञानी पुरुष होगा जो धर्म को त्याग कर ऐसी घृणित काया से अनुराग करेगा? इस काया के मुख आदि पवित्र स्थानों में भी यदि बाह्य पदार्थ रख दिया जाता है, तो वह स्थान भी अपने स्वभाव के अनुसार बाह्य पदार्थों के संस्पर्श से मनुष्यों को घृणा उत्पन्न करा देता है। जिस प्रकार चाण्डाल के निवास में अस्थि-चर्म आदि के अतिरिक्त अन्य कोई मनोज्ञ पदार्थ नहीं मिल सकता, उसी प्रकार इस घृणित काया में भी कोई मनोहर पदार्थ नहीं मिल सकता । यद्यपि ये प्राणी इस काया का पालन-पोषण परम अनुराग से करते हैं, तथापि यह काया उनको इसी जन्म में ही अनेक व्याधियों से संतप करती है एवं परलोक में नरकादि दुर्गति देती है। इससे अधिक आश्चर्यजनक भला क्या हो सकता है ? यदि तपश्चरण के द्वारा इस काया को कृश किया जाये तो यह इस जन्म में धर्मध्यान आदि आत्मा से उत्पन्न हुए सुखों को प्रदान करती है एवं परलोक में स्वर्ग-मोक्षादिक के सुख प्रदान करती है। इस संसार में इससे बढ़ कर अधिक आश्चर्यजनक क्या हो सकता है ? यह काया नरक के सदृश असार है, इसके नव द्वारों से सदैव दूषित पदार्थ झरता रहता है, पापों की कारण है एवं दुःखों की पात्र है । यह विद्युत के समतुल्य अनित्य है एवं मानो यम के मुख-गहवर में ही इसका निवास है । यही समझ कर बुद्धिमानों को धर्म कार्य करने में भी किसी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिये ७०॥ जिन बुद्धिमानों ने अपनी आत्मा की सिद्धि के लिए तप-यम आदि कायक्लेश द्वारा इस काया को कृश किया है, उन्हीं का यह देह धारण सफल हुआ है । इस प्रकार काया को अपवित्र समझ कर स्वर्ग-मोक्ष के सुख प्राप्त करने के लिए बुद्धिमानों को सदैव तप-चारित्र-धर्म आदि पवित्र कार्य करते रहना चाहिये । यह काया शक्र-शोणित के संयोग से निर्मित है, 4444.
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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