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________________ 54 FRE में जाकर उस पाप का फल भोगता है, उस दुःख को भोगने के लिए अन्य कोई उसका संग (साथ) नहीं देता । अन्न-पान आदि से पालन-पोषण की हुई अपनी कहलानेवाली यह काया भी परलोक में जीव के साथ नहीं जाती, फिर भला परिवार के अन्य लोग उस प्राणी के साथ कैसे जा सकते हैं ? जो मूढ़ मोह कर्म के उदय से धन एवं परिवार के लिए 'यह मेरा है, यह मेरा है'-ऐसा विचार करते रहते हैं, वे भी अन्त में उन्हें त्याग कर एकाकी परिभ्रमण किया करते हैं ॥५०॥ इस प्रकार स्वयमेव को एकाकी ही समझकर बुद्धिमान लोग मरण आदि में अनन्त गुणों का कारण निर्ममत्व ही धारण करते हैं । यह जीव एकाकी ही चारित्र-तप-दान-पूजन आदि के द्वारा प्रतिदिन धर्मसेवन के द्वारा देवों की विभूति प्राप्तकर सुख भोगता है तथा एकाकी ही प्रतिदिन हिंसा आदि के द्वारा पाप उपार्जन कर नरक या तिर्यन्च गति में अनेक प्रकार के दुःख भोगता है, एकाकी ही महाव्रतादिकों के द्वारा कर्म नष्ट कर उपमा रहित मोक्ष पद प्राप्त करता है । इति एकत्वानुप्रेक्षा। इस संसार में माता भी अन्य है, पिता भी अन्य है, पुत्र-बांधव आदि भी अन्य हैं एवं पत्नी-पुत्र आदि भी सब अन्य (पराये) हैं । जहाँ पर आत्मा के प्रदेशों में सम्मिलित तथा आत्मा के संग उत्पन्न हुई यह काया ही आत्मा से निश्चिततः भिन्न है, फिर भला परिवार के सदस्यगण आत्मा के अपने कैसे हो सकते हैं ? लक्ष्मी (वैभव), गृह, भ्राता, सेवक आदि समस्त कर्मों से उत्पन्न होते हैं, इसीलिये समस्त भिन्न हैं; पाप एवं ममत्व को उत्पन्न करनेवाले हैं एवं कर्मों के बन्धन के कारण हैं । अनेक दुःखों से संतप्त हुआ यह जीव कर्मों के उदय से पुरातन जर्जर काया को त्यागता रहता है एवं नवीन काया को ग्रहण करता रहता है । इस प्रकार प्राणी संसार में अनेक प्रकार की देह धारण करता रहता है । काया-वैभव-गृह आदि जो कुछ भी कर्मों के उदय से प्राप्त होता है, वह समस्त आत्मा से भिन्न है एवं समस्त विनश्वर है । मूढजन कायादि पदार्थों को आत्मा से भिन्न क्यों नहीं मानते ? जब कि जन्म-मरण के समय वे भी इसका प्रत्यक्ष करते हैं । यह आत्मा कर्मों से सर्वथा भिन्न है, फिर भला वह काया-गृह-वैभव आदि से युक्त होकर एक कैसे हो सकता है ? यह आत्मा एक है, नित्य है, ज्ञानमय है, गुणी है एवं चराचर से भिन्न है-योगी जन सदैव इसी प्रकार का चिन्तवन किया करते हैं ॥६०। जो जीव अपनी आत्मा को नित्य तथा कायादि से भिन्न मानते हैं, वे ही समस्त कर्मों से रहित परमात्मपद को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार ज्ञानी पुरुष आत्मा * 4 Fb PFF |२३२
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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