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________________ FFFF उन चक्रवर्ती के 'काल' नाम की निधि थी, जिससे. लौकिक शब्द प्रगट करनेवाली वस्तुयें निकला करती थीं। यह निधि विशेषकर वीणा, बंशी, मृदंग आदि वाद्य इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों की पूर्ति हेतु विशेष रीति से प्रदान किया करती थीं । शांतिनाथ के निर्देश अनुसार असि-मसि आदि षट् कर्मों के योग्य सर्वप्रकारेण साधन महाकाल नाम की निधि से प्राप्त होते रहते थे । शैय्या, आसन, गृह आदि 'नैसर्प' निधि से प्राप्त होते थे एवं धान्य तथा षट् रसों की उत्पत्ति 'पाण्डुक' निधि से होती थी ॥२७०॥ अपार वैभव-लक्ष्मी प्रगट करनेवाले चक्रवर्ती के पुण्य कर्म के उदय से रेशमी वस्त्र, दुपट्टा आदि वस्त्रों को 'पद्म' निधि प्रदान किया करती थी। चक्रवर्ती के लिए सर्वप्रकारेण दिव्य आभरण 'पिंगल' निधि से प्राप्त होते हैं एवं नीतिशास्त्र संबंधी निर्देश 'माणव' निधि से मिलते हैं। शास्त्रों की उत्पत्ति 'शंख' निधि से होती है । एवं सुवर्ण आदि भी 'शंख' निधि से प्रगट होते हैं । चक्रवर्ती एवं धर्मचक्री के सर्वरत्न नाम की निधि से महानील तथा अन्य भी अनेक बहुमूल्य रत्नो के ढेर प्रगट होते हैं । इन निधियों की रक्षा स्वयं देव करते हैं । चक्रवर्ती के भोगोपभोग का वर्णन भला कौन कर सकता है ? चक्रवर्ती के उपरोक्त चतुर्दश रत्न थे, जो आश्चर्यजनक भोगों को प्रगट करते थे एवं देव भी जिनकी रक्षा करते थे । षोडश सहस्र गणबद्ध जाति के देव थे, जो शस्त्र धारण कर नव निधियों, चतुर्दश रत्नों एवं चक्रवर्ती की अंगरक्षा में अहर्निश सन्नद्ध रहते थे । प्रासाद को आवृत्त करता हुआ क्षितिसार नाम का मनोहर कोट था एवं मणियों के तोरणों से शोभायमान सर्वतोभद्र नामक गोपुर था । सेना के लिए नन्द्यावर्त नामक विराट शिविर था एवं सर्वप्रकारेण सुख प्रदायक वैजयन्त नामक राजप्रासाद (महल) था; दिकस्वस्तिका नाम की सभा थी, बहुमूल्य रत्नकुटिटमा भूमि थी, मणियों से निर्मित सुविधि नामक दैदीप्यमान छड़ी थी ॥२८०॥ सर्व दिशाओं के पर्यवेक्षण हेतु गिरिकूट नामक गगनचुम्बी भवन था एवं वर्द्धमान नामक मनोहर दर्शनीय भवन था । चक्रवर्ती के धर्मान्तक (ग्रीष्म ऋत में संताप निवारण हेत) नामक धारागृह एवं वर्षा ऋतु में निवास हेतु |२२५ गृहकूटक नामक भाण्डागार था । पुष्करावर्त नामक श्वेत चूने से पुता हुआ मनोहर शुभ भवन एवं सदैव अक्षय बना रहनेवाला कुबेरकान्त नाम का भाण्डागार था । जिस भाण्डार में किसी भी वस्तु का अभाव न हो, ऐसा वसुधारक नाम का कोठार था एवं जीमूत नाम का अति मनोज्ञ स्नानागार था । रत्नमाल नामक दैदीप्यमान माला एवं देवरम्या नामक मनोहर शिविर (तम्बू) था । भयानक सिंहों के द्वारा धारण की हुई FFFFF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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