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________________ श्री का अनुमान भला कौन बुद्धिमान कर सकता है ? शान्तिनाथ चक्रवर्ती के राज्य में न कोई उपद्रवी था, न कोई आज्ञा का उल्लंघन करनेवाला था, न कोई दीन था एवं न ही कोई अभागा था । संसार के समस्त धराधिपति तथा प्रजा आनन्द से रहते थे । शान्तिनाथ चक्रवर्ती के पुण्य के फल को प्रत्यक्ष दर्शानेवाले ऐरावत हाथी के समान ऊँचे चौरासी लक्ष हाथी थे, जिनके गण्डप्रदेश से मद झर रहा था । सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित चौरासी लक्ष रथ थे एवं वायु के समकक्ष तीव्रगामी अष्टादश कोटि उत्तम जाति के अश्व थे । तीव्रगामी पदातिक भी चौरासी कोटि थे एवं बत्तीस सहस्र मुकुटबद्ध नृपति उनको नमस्कार करते थे । उनके अन्तःपुर (रनिवास) में उत्तम कुल एवं जाति में उत्पन्न बत्तीस सहस्र राजकन्यायें (विवाहिता रानियाँ ) थीं । म्लेच्छ राजाओं के द्वारा भक्तिपूर्वक भेंट स्वरूप दी हुईं बत्तीस सहस्र पुत्रियाँ भी थीं। इसी प्रकार विद्याधर राजाओं की विद्या विनय से सुशोभित कोमलांगी बत्तीस सहस्र कन्याएँ भी थीं ॥२५०॥ गीत-वाद्यों से अलंकृत मनोरन्जक बत्तीस सहस्र नाटक अभिनीत होते थे । नयनाभिराम दर्शनीय स्थलों से सुशोभित बत्तीस सहस्र देश थे एवं कोटों से आवृत्त बहत्तर सहस्र नगर थे । इसी प्रकार श्री जिन मन्दिरों से विभूषित एवं जन समुदाय से भरे हुए छ्यानवे कोटि ग्राम थे । समुद्र की बेला से घिरे हुये निन्यानवे सहस्र शुभ द्रोणमुख थे । उन रत्नों के उद्गम स्थान अड़तालीस सहस्र पत्तन ( बंदरगाह ) चक्रवर्ती के अधिकार में थे । जिनमें धार्मिक प्रजाजन रहते हैं एवं जो नदी समुद्र दोनों से आवृत्त हैं, ऐसे सोलह सहस्र खेट थे । समुद्र के भीतर बसे हुए मनुष्यों से भरे छप्पन अन्तद्वीप थे । धार्मिकजनों से भरे हुये पर्वत के ऊपर बसे चौदह सहस्र सम्बाहन थे । चक्रवर्ती के प्रताप, से वन, पर्वत, नदी एवं धान्य आदि से भरे हुये अटठाईस हजार दुर्ग (किले) उनके साम्राज्य में थे। उनकी सेवा में अठारह सहस्र म्लेच्छ नरेश सन्नद्ध रहते थे, जो भक्तिपूर्वक मस्तक नवाकर उनके चरण कमलों को नमस्कार करते थे ॥ २६०॥ एक कोटि हण्डे थे, जो पाकशाला (रसोईघर) में चावल बनाने के कार्य आते थे । एक लक्ष कोटि हल थे, जो सर्वदा खेत जोतने के प्रयोग में आते थे। उनके तीन कोटि गायें थीं, जिनके दुग्ध दोहन का कोलाहल सुनकर पथिक भी कुछ क्षण के लिए ठहर जाते थे । विद्वानों ने सात शतक कुक्षवास बताये हैं, जिनमें म्लेच्छ देशों के नागरिक आकर ठहरते थे । काल, महाकाल, नैसर्प, पाण्डुक, पद्म, माणव, पिंगल, शंख एवं सर्वरत्न नाम की नवनिधियाँ थीं, जिनके प्रभाव से वे चक्रवर्ती गृह संसार की चिन्ता से सर्वथा रहित थे । पुण्य की निधि शां ति ना थ पु रा ण 4 श्री शां ति ना थ रा ण २२४
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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