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सहस्र वर्ष तक महामण्डलेश्वर रांज्यलक्ष्मी के अनुपम सुख का भोग किया था । तदनन्तर पुण्य कर्म के उदय से षट् खण्ड पृथ्वी को वश में करनेवाले चक्र आदि चतुर्दश रत्न स्वयं उनके यहाँ उत्पन्न हो गये थे । उन रत्नों में से चक्र, छत्र, खड्ग एवं दण्डं-ये चार रत्न आयुधशाला में प्रगट हुए थे; कांकिणी, चर्म एवं चूड़ामणि-ये तीन श्रीगृह में उत्पन्न हुए थे; पुरोहित, शिलावट, सेनापति एवं गृहपति-ये चार रत्न स्तिनापुरी में ही उत्पन्न हए थे एवं उनके पुण्य कर्म के उदय से कन्या, गज, अश्व-ये तीन रत्न विजयार्द्ध पर्वत पर उत्पन्न हुए थे जो कि विद्याधरों ने लाकर भगवान को समर्पित कर दिये थे । इसी प्रकार भगवान के उपयोग हेतु नव निधियाँ नदी एवं समुद्र के संगम पर प्रगट हुई थीं, जो कि उनके पुण्य कर्म के उदय से गणबद्ध जाति के व्यन्तर देवों ने लाकर भगवान को भक्तिपूर्वक अर्पण कर दी थीं ॥२३०॥ यद्यपि भगवान मन्द लोभी थे तथापि पुण्य कर्म की प्रेरणा से वे देव, विद्याधर एवं राजाओं के संग दिग्विजय करने के लिए निकले । षट् खण्ड पृथ्वी का उपभोग करनेवाले नृपति, समस्त विद्याधरों के स्वामी एवं समुद्र में निवास करनेवाले मगध आदि व्यन्तर देव बिना किसी परिश्रम के ही लीलापूर्वक भगवान के वशीभूत हो गये एवं अपनी कन्या, रत्न, आदि उत्तम पदार्थ लाकर भगवान को भेंट कर दिये । भगवान ने जब आठ शतक वर्ष में ही पृथ्वी पर परिभ्रमण कर षट् खण्ड में रहनेवाले समस्त नृपति, देव एवं विद्याधर अपने वश में कर लिये, तब षट् प्रकार की सेना के संग चक्रवर्ती होकर विपुल विभूति के संग तथा देवगणों के संग अपनी नगरी में प्रवेश किया । तदनन्तर विद्याधर एवं भूमिगोचरी राजाओं तथा देवों ने अपार विभूति सहित सुवर्ण के कलशों से चक्रवर्ती शान्तिनाथ का अभिषेक किया । तदुपरान्त वे सिंहासन पर विराजमान हुए, तब गणबद्ध देव, मागध आदि व्यन्तर देवों के इन्द्र, हिमवान पर्वत के स्वामी, विजयार्द्ध पर्व के स्वामी, विजयार्द्ध पर्वत की दोनों श्रेणियों के विद्याधर नरेश, भूमिगोचरी मुकुटबद्ध नृपतिगण एवं कल्पवासी देवों ने आकर भक्तिपूर्वक मस्तक नवाकर चक्रवर्ती को नमस्कार किया ॥२४०॥ उस समय उन पर वर ढुलाये जा रहे थे एवं भ्राता, बन्धु, रानियों एवं षट्खण्ड पृथ्वी के नृपतियों के संग विराजमान हुए वे चक्रवर्ती भगवान अपार सुख का अनुभव कर रहे थे । भगवान अपने पुण्य कर्म के उदय से भ्राता-बन्धुओं के सहित सर्वप्रकारेण बाधा रहित, उपमा रहित, तृप्ति प्रदायक मध्यलोक तथा स्वर्गलोक में उत्पन्न दश प्रकार के चक्रवर्तियों के दिव्य भोगों का सदा उपभोग किया करते थे । इन भोगों
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