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करवाता रहता था। इस प्रकार भगवान ने कुमार अवस्था से लेकर पच्चीस सहस्र (हजार) वर्ष तक मनुष्यों एवं देवों के द्वारा प्रस्तुत किए नानाविध उत्तम सुख भोगे थे । तदनन्तर इन्द्रादिक देवों ने पिता ( महाराज विश्वसेन) की आज्ञानुसार भगवान शांतिनाथ को राज्य सिंहासन पर विराजमान कर महती आनन्द एक विभूति के संग गीत-नृत्य, तुरई आदि वादित्रों के मधुर कोलाहल के मध्य उनको मुक्ताओं की माला, चन्दन आदि से सुशोभित कर गंगा आदि पवित्र नदियों क्षेत्र के पावन तीर्थजल से भरे हुए सवर्णमय उत्तम कलशों से उनका राज्याभिषेक किया एवं फिर स्वर्गलोक से भेंट में लाये हुए वस्त्राभूषणों से उनका उत्तम श्रृंगार किया । उस समय वह मनोहर नगरी मनुष्य एवं देवों के द्वारा ध्वजा, तोरण, माला आदि से अलंकृत हुई साक्षात् इन्द्रपुरी के समान सुशोभित हो रही थी। राज्याभिषेक के उपरांत महाराज विश्वसेन ने समर नृपतियों के सम्मुख विपुल विभूति के संग भगवान के मस्तक पर राज्यपटट बाँधा । उस राज्योत्सव में महाराज विश्वसेन ने सर्व कुटुम्बीजनों को इच्छित विभूति प्रदान कर प्रसन्न किया था एवं समस्त बन्दीजनों, दीन एवं अनाथ प्रजा को इच्छानुसार द्रव्यदान से प्रमुदित किया था । समग्र प्राणियों को आनन्द प्रदान करनेवाले उस उत्सव में न तो कोई निर्धन प्राणी दृष्टिगोचर होता था, न अनाथ दिखलाई देता था, न कोई दुःखी जीव परिलक्षित होता था एवं न ही कोई शोकार्त्त प्राणी वहाँ परिलक्षित होता था ॥२२०॥ इस प्रकार इन्द्रादि देवगण अपार विभूति के संग भगवान श्री शान्तिनाथ का राज्यारोहण उत्सव सम्पन्न कर महती पुण्य उपार्जन पूर्वक अपने-अपने स्थान को प्रत्यावर्तन कर गए । राज्यनीति में निष्णात वे भगवान शान्तिनाथ न्याय मार्ग से योग्य एवं क्षेम की स्थापना कर प्रजा का पालन करने लगे । विश्व के समस्त देशों के नृपति, सामन्त, विद्याधर तथा देवगण उनकी आज्ञा का पालन करते थे एवं मस्तक नवाकर उनके चरणकमलों में श्रद्धा निवेदन करते थे । नृपति शान्तिनाथ के राज्य में सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र राज्य सन्चालन के दायित्व का निर्वहन करता था। फिर भला ऐसा कौन था, जो उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर सके ? उस समय घनीभूत मनोहर पृथ्वी सुन्दर रमणी के रूप में मानो अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए धन-धान्य आदि अनेक सम्पदाओं को उत्पन्न करती थी । मन्द राग को धारण करनेवाले वे भगवान अपने पुण्य कर्म के उदय से अपनी सुन्दरी रानियों के संग मध्यलोक एवं स्वर्गलोक में उत्पन्न वर्णनातीत अनुपम भोगों का अनुभव करते थे । समस्त देव, विद्याधर एवं भूमिगोचरी जिनकी सेवा करते हैं, ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान ने पच्चीस
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