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मनोज्ञ परिलक्षित होने लगे । श्री शान्तिनाथ दिव्य रूपवान थे, तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कांति थी, एक लक्ष वर्ष की आयु थी एवं चालीस धनुष उच्च उनकी काया थी ॥१८०॥ वे भगवान निःस्वेद ( पसीना रहित) आदि गुणों, यौवन की कांति एवं देवों के द्वारा लाये हुए उत्तम वस्त्राभूषणों से समस्त उपमाओं को परास्त करते हुए नयनाभिराम सुशोभित हो रहे थे । भ्रमर - श्याम केशों से अलंकृत उनका मस्तक, माला एवं मुकुट के समावेश से ऐसी मनोज्ञ छटा देता था मानो अद्भुत शोभा को धारण करनेवाली चूलिका से मेरु पर्वत का शिखर ही शोभायमान हो रहा हो । चन्द्रमा को पराजित करनेवाला उनका विस्तीर्ण ललाट ऐसी उत्तम शोभा दे रहा था, मानो वह सरस्वती देवी के विशाल क्रीड़ास्थल की लीला को ही धारण करता हो । कृष्णवर्ण पुतलियों से शोभायमान सुन्दर भौंहवाले भगवान के नेत्रों की शोभा ऐसी भव्य प्रतीत होती थी मानो समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर वे नेत्र शान्त हो गए हों । सूर्य-चन्द्रमा के सदृश दोनों कुण्डलों से शोभायमान श्रुतज्ञान से पूर्ण भगवान के दोनों कर्ण ऐसे प्रतीत होते थे, मानो वे गीत आदि के रसास्वादन करने की चरम सीमा तक पहुँच गए हों। भगवान के मुखरूपी चन्द्रमा की शोभा का वर्णन भला कौन कर सकता है ? क्योंकि उससे तो जगत का हित करनेवाली एवं मोक्षमार्ग का उपदेश देनेवाली मनोहर दिव्य ध्वनि निकली है। भगवान की उच्च नासिका अपूर्व शोभा को धारण करती थी एवं ऐसी प्रतीत होती थी मानो स्वयं सरस्वती के अवतार के लिए एक दिव्य प्रणाली ही निर्मित की गई हो । भगवान का वक्षःस्थल भी प्रशस्त एवं विस्तृत था, वह लक्ष्मी एवं कान्ति से सुशोभित था, उस पर दिव्य हार विभूषित था, जिससे उसकी शोभा द्विगुणित हो गई थी । भगवान की दोनों भुजाएँ ण केयूर आदि से सुशोभित थीं, लक्ष्मीरूपी लता विभूषित थीं एवं ऐसी भव्य प्रतीत होती थी, मानो कामनानुसार फलदायक दो कल्पवृक्ष ही हों । भगवान के हस्त की उँगलियों के मनोहर दशों नख ऐसे भव्य प्रतीत होते थे, मानो दशलाक्षणिक धर्म की प्रकट करने के लिए ही वे तत्पर हुए हों ॥ १९० ॥ भगवान की काया के मध्य भाग में स्थित नाभि ऐसी भव्य प्रतीत होती थी, मानो कोई लघु सरोवर ही हो, जिसमें भँवर पड़ रहे हैं एवं लक्ष्मी तथा हंसिनी जिसकी सेवा कर रही है। करधनी एवं वस्त्रों से आवृत्त उनका कटिभाग ऐसा मनोज्ञ लग रहा था, मानो वेदिका से आवृत्त हुआ मनोहर जम्बूद्वीप ही हो। केले के स्तम्भ के सदृश कोमल होने पर भी कायोत्सर्ग करने में समर्थ भगवान की दोनों सबल जंघाऐं ऐसी प्रतीत होती थीं मानो
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