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________________ FFFF हुए वे माता-पिता को आनन्दित करते थे । भगवान का किंचित-सा हँसना मानो मुखरूपी चन्द्रमा में निर्मल चाँदनी के समतुल्य था, जिससे उनके मुखकमल में सरस्वती (वाणी) ने प्रवेश किया। उनकी वाणी प्रिय एवं मधुर थी, अत्यन्त मनोहर थी एवं सम्पूर्ण संसार को आनन्द प्रदायक थी। आभूषणों से सुशोभित होकर मणियों की भूमि पर डगमगाते पगों से चलते हुए वे भगवान ऐसे मनोज्ञ प्रतीत होते थे, मानो चलायमान कल्पवृक्ष ही हो । वे देवकुमार कभी तो गज, अश्व, वानर आदि का सुन्दर रूप धारण कर अतीव प्रसन्नता से भगवान के संग क्रीड़ा करते, कभी भगवान की आयु के ही समतुल्य बालक का मनोहर रूप धारण कर रत्नों की धूलि से क्रीड़ा कर उनको प्रसन्न करते थे । भगवान की काया में अंगप्रत्यंग जैसे-जैसे वृद्धि पाते थे, वैसे-वैसे ही देव पुरातन आभूषणों को उतार कर नये आभूषण उन्हें पहना देते थे । भगवान की वह बाल्यावस्था चन्द्रमा के समतुल्य संसार में वन्दनीय थी, प्राणियों के नेत्रों को आनन्द प्रदायक थी एवं मनोहर तथा निर्मल थी । इस प्रकार वे भगवान अमृतमय अन्नपान तथा अपनी आयु के योग्य आभूषणों से चन्द्रमा की मनोहरता के सदृश अनुक्रम से कुमार अवस्था को प्राप्त हो गए थे ॥१७०॥ देह के संग-संग ही आयु (उम्र) की कान्ति, दीप्ति, कला, विद्या एवं तीनों ज्ञानों से उत्पन्न होनेवाले गुण-समस्त स्वयमेव ही विकसित होते गए । उनकी काया मनोहर थी, वाणी प्रिय थी, सज्जनों को मान्य थी एवं अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी । नेत्र सौम्य अवस्था को धारण करते थे एवं उनका अंग-उपांग सम्पूर्ण शुभ था । मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, अवधिज्ञान-ये तीनों ज्ञान तो जन्म के संग ही प्रगट हुए थे एवं अन्य समस्त महाविद्याएँ भी स्वयमेव उनमें प्रगट हो गई थीं । वे श्री तीर्थंकर भगवान हित-अहित को एवं मुनि-गृहस्थ के धर्म को अपने ज्ञान से स्वयंमेव ही जानते थे । इसलिए वे भगवान समस्त विद्वानों के गुरु एवं समस्त विद्याओं को प्रगट करनेवाले थे, संसार में अन्य कोई प्राणी उनका गुरु नहीं था । तदनन्तर क्षायिक सम्यग्दर्शन से सुशोभित होनेवाले बुद्धिमान भगवान ने अष्ट वर्ष की अल्पायु में गृहस्थ धर्म पालन की अभिलाषा से परम शुद्धतापूर्वक अपने योग्य पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत-ये द्वादश व्रत स्वयं धारण किए । वे भगवान माता-पिता का आनन्दवर्द्धन करते हुए, भ्राताओं की सुखवृद्धि करते हुए एवं संसार के प्राणियों में स्नेहावृद्धि करते हुए अनुक्रम से विकास करने लगे । तदनन्तर वे भगवान अपनी कांति से कामदेव तथा चन्द्रमा को, दीप्ति से सूर्यादिक को परास्त करते हुए उपमा रहित यौवन अवस्था को प्राप्त कर अत्यंत Fb FRE
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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