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भुजा पर नृत्य करती हुई एवं बड़े वेग से फिरकी लेती हुई देवांगनाएँ विद्युत के समतुल्य आभासित होती थीं । नृत्य करते हुए इन्द्र की काया के प्रत्येक अवयव की जो चेष्टा- प्रचेष्टा होती थी, वह नृत्य करनेवाले पात्रों में विभक्त हो जाने के कारण नयनाभिराम प्रतीत होती थी । उन देवियों के संग नृत्य करता हुआ सौधर्म इन्द्र अपनी विभूति से ऐसा प्रतीत होता था, मानो कल्पलताओं के संग नृत्य करता हुआ जंगम कल्पवृक्ष ही हो । उस नाटक में दर्शक विश्वसेन आदि नृपति तथा ऐरा आदि महारानियाँ थीं । उस नाटक में तीनों जगत् के गुरु भगवान श्री शांतिनाथ की आराधना हो रही थी । सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र नट था, देवांगनाएँ नृत्यांगनायें थीं। देवों की दुन्दुभी वाद्य थे, गंधर्वादिक गायक थे । वह रस, वह नृत्य, वह विज्ञान, वह विक्रिया, वह गीत, वह वाद्य एवं देवों के द्वारा आयोजित हुआ वह अद्भुत महोत्सव समग्र महामनोहर एवं था अत्यन्त ही विस्मयकारी । वह वचनों के लिये अगोचर था, इसीलिये कोई भी विद्वान उसका वर्णन नहीं कर सकता है ॥ १५० ॥ महाराज विश्वसेन महारानी ऐरा देवी के संग उस अद्भुत नृत्य को देखकर परम आश्चर्य व्यक्त करने लगे । उस समय अनेक इन्द्रादिक देव उनकी उत्तम प्रशंसा कर रहे थे । तदनन्तर इन्द्र भावी तीर्थंकर भगवान की सेवा करने के लिए क्रीड़ा में पारंगत देवों को नियुक्त किया, जो कि भगवान के समतुल्य ही आयु, रूप, वेष आदि को धारण किये हुए थे । इस प्रकार धर्म साधन कर प्रमुदित हुए चारों निकायों के देव अपना-अपना नियोग पालन कर तथा अनेक प्रकार का पुण्योपार्जन कर अपने-अपने स्थान को प्रत्यावर्त्तन गये । दृढ़रथ का जीव भी पुण्य कर्म के उदय से सुदीर्घ काल तक सुखों का अनुभव कर सर्वार्थसिद्धि से चय कर महाराज विश्वसेन की यशस्वती रानी के गर्भ से चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ । वह चक्राध दिव्य लक्षणों से सुशोभित था, मोक्षगामी था, महा धीर-वीर था, महापुरुष था एवं ज्ञान-त्याग आदि गुणों का आगार था । भगवान श्री शन्तिनाथ को स्नान कराने, वस्त्राभरण पहिनाने, संस्कार कराने एवं भोजन कराने के लिए इन्द्र ने अनेक देवांगनाओं को धायरूप में नियुक्त कर रखा था । वे समस्त देवांगनायें भक्तिपूर्वक दिव्य द्रव्यों से भगवान का स्नान, तैल मर्दन, केशसज्जा एवं अद्भुत श्रृंगार आदि सम्पूर्ण संस्कार करती थीं ॥ १६० ॥ तदनन्तर भगवान की सुन्दर काया के अवयव द्वितीया के चन्द्रमा समान धीरे-धीरे अनुक्रम से विकसित होने लगे । भगवान शान्तिनाथ मन्द मन्द मुस्कराते थे एवं मणियों से निर्मित प्रांगण में घुटनों के बल सरकते थे। इस प्रकार बाल्य अवस्था में अद्भुत चेष्टाएँ करते
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