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________________ श्री अभिनीत करना प्रारम्भ किया । इन्द्र का वह नाटक प्रारम्भ होते ही महाराज विश्वसेन आदि समस्त नृपति अपनी रानियों एवं राजकुमारों के संग उसे देखने के लिए बैठ गये ॥ १३०॥ उस समय उस नाटक की विधि के ज्ञाता गन्धर्व पात्रों के द्वारा श्री जिनेन्द्रदेव के गुणों को प्रगट करनेवाला संगीत बजने लगा । वीणा के संग-संग स्वर मिलानेवाली किन्नरी देवियों के द्वारा मधुर स्वर में श्री तीर्थंकर के गुणों को प्रगट करनेवाला मनोहर संगीत गाया जा रहा था। उस उत्सव में देवों के बजाये हुए मृदंग वाद्ययंत्र नृत्य की ताल मधुर पर संगीत दे रहे थे एवं देवों के मुख से बजनेवाली बंशी भी उसी लय में बज रही थी । इन्द्र ने सर्वप्रथम धर्म, अर्थ, काम- इन तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला गर्भ-कल्याणक एवं जन्म-कल्याणक सम्बन्धी नाटक प्रदर्शित किया । तत्पश्चात् भगवान के विगत एकादश पर्यायों को प्रदर्शित कर तत्सम्बन्धी अनेक प्रकार के रूप दिखलाये । उसने सर्वप्रथम शुद्ध पूर्व रंग दिखलाया एवं फिर काया को प्रिय लगनेवाले साधनों के द्वारा अनेक प्रकार के उत्तम नाटक अभिनीत किए। इन्द्र ने चित्र, रेचक, पंदुकट एवं कण्ठाश्रित आदि हावभाव के द्वारा दर्शकों को रसपान कराते हुए ताण्डव नृत्य किया । इन्द्र सहस्र भुजाएँ बनाकर नृत्य कर रहा था उस समय तथा ऐसा प्रतीत होता था, मानो उसके पाद - प्रहार से भूमि फट कर द्विधा हो जाएगी । वस्त्र एवं आभूषणों से दैदीप्यमान सुदीर्घ काया को धारण करनेवाला वह इन्द्र आभूषणों से सुशोभित अपनी सहस्र भुजाओं को विस्तृत कर नृत्य कर रहा था एवं ऐसा आभास होता था मानो कल्पवृक्ष ही नृत्य कर रहा हो ॥ १४० ॥ वह इन्द्र क्षणभर में एक परिलक्षित होता था, क्षणभर में अनेक रूप धारण करता था, क्षणभर में में सूक्ष्म, क्षणभर में समीप, क्षणभर में दूर, क्षणभर में आकाश में, क्षणभर में पृथ्वी पर क्षणभर में अनेक भुजाधारी, क्षणभर में दो भुजवाला, क्षणभर में दीर्घ, क्षणभर में लघु, क्षणभर में विराटकाय (लम्बा-चौड़ा) एवं क्षणभर में अणु रूप दिखाई देता था । इस प्रकार वह इन्द्र अपनी विक्रिया ऋद्धि का माहात्म्य प्रदर्शित कर रहा था एवं स्वयं इन्द्रजाल के समतुल्य प्रतीत होता था । इन्द्र की भुजाओं पर अप्सरायें भी लीलापूर्वक अपनी मनोहर काया, कटि, पग, ग्रीवा आदि थिरका कर नृत्य कर रही थीं। अप्सराएँ द्रुतगामी लय के संग नृत्य कर रही थीं, ताण्डव नृत्य कर रही थीं एवं अनेक प्रकार के अभिनय दिखला कर नृत्य कर रही थीं, इन्द्र के भुजाओं की उंगलियों पर फिरकी ले रही थीं, उँगलियों के पर्वों पर फिरकी ले रही थीं एवं उसकी नाभि पर बाँस के सदृश खड़ी थीं । इन्द्र की स्थूल, क्षणभर 4 ना थ पु रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण २१७
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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