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________________ श्री नाश करनेवाले हैं, भव्य जीवों के हृदय कमल को प्रफुल्लित करनेवाले हैं एवं तीनों जगत् के गुरु हैं, आप उनके माता-पिता हैं; इसलिए आप तीनों जगत् के गुरु के भी गुरु हैं । यह आपका राजप्रासाद आज से जिनालय के समतल्य आराधना करने योग्य है एवं आप हम लोगों के द्वारा सदा पूज्य एवं मान्य हैं; क्योंकि आप हमारे गुरु के भी गुरु हैं । इस प्रकार इन्द्र ने माता-पिता की स्तुति की, दिव्य एवं उत्तम वस्त्र, माला एवं आभरणों से उनको विभूषित किया एवं सर्वप्रकारेण उन्हें प्रसन्न किया । तदनन्तर इन्द्र ने भगवान को रु पर्वत पर ले जाने, वहाँ पर उनका अभिषेक करने एवं वहाँ से वापस आने का सम्पूर्ण वृत्तान्त शां ज्यों-का-त्यों उन्हें कह सुनाया । इस सविस्तार वर्णन को सुनकर माता-पिता परम प्रसन्न हुए, उन्हें चरम सीमा तक पहुँचानेवाले सुख की अनुभूति प्राप्त हुई एवं वे महत् आश्चर्य व्यक्त करने लगे ॥ १२० ॥ तदनन्तर ति आल्हादित भगवान के माता-पिता ने इन्द्र के उपदेशानुसार विपुल विभूति तथा उत्सव के संग पुनः भगवान का जन्मोत्सव मनाया। उस समय अनेक वर्णों की महाध्वजा, माला, मुक्तायों की माला तथा मनोहर तोरणों से सुसज्जित की गई वह नगरी अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होती थी । उस समय रत्नों के चूर्ण से पूरे हुए चौकों से नगर की वीथियाँ (गलियाँ) अत्यन्त उत्तम आभासित होती थीं एवं नगरी भी गीत वाद्य आदि से स्वर्ग के सदृश प्रतीत होती थी। जिस प्रकार नृपति एवं सज्जनगण अपनी सहधर्मिणियों के संग समस्त पु विघ्नों का विनाश करने के लिए एवं मोक्ष प्राप्त के लिए भव्य जिनालयों में प्रचुर विभूति के संग समस्त ना थ रा ण कल्याणकों को सिद्ध करनेवाली भगवान की पूजा अभिषेकपूर्वक कर रहे थे, उसी प्रकार अपने-अपने हृदय में आनन्दित होकर समस्त नगर निवासी भी भगवान की पूजा कर रहे थे। जिस प्रकार महाराज विश्वसेन ने मुक्त हस्त होकर दीन एवं अनाथ जनों को अनेक प्रकार का दान दिया, उसी प्रकार नगर निवासियों ने भी हार्दिक प्रसन्नता से दान दिया। जिस प्रकार अन्तःपुर में समस्त नर-नारी नृत्य - वाद्य आदि से महोत्सव मना रहे थे, उसी प्रकार नगर निवासी भी घर-घर आनन्द मनाने लगे । जिस प्रकार मेरु पर्वत पर अपार विभूति के संग परम उत्सव हुआ, उसी प्रकार यहाँ भी हार्दिक आनंद में निमग्न परिवार के सदस्यों के द्वारा कल्याणकोत्सव मनाया गया । उस समय अन्तः पुरवासियों एवं नागरिकों के संग समस्त संसार को आनन्दित देखकर इन्द्र ने भी आनन्द प्रगट करना चाहा तथा इसलिये उसने उन सब के सम्मुख अपार विभूति सहित सम्पूर्ण परिवार के संग उसी समय मनोमुग्धकारी 'आनन्द' नामक एक नाटक श्री शां ति ना थ पु रा ण २१६
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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