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________________ शीघ्र हस्तिनापुरी नगरी में आ गये ॥१००॥ वह नगरी अट्टालिकाओं पर फहराती हुई अनेक प्रकार की मनोहर ध्वजाओं से तथा गीत-नृत्य आदि महोत्सवों से प्रत्यक्ष अमरापुरी के समतुल्य शोभायमान हो रही थी । देवों की सेना उस नगरी की घेर कर चारों ओर ठहर गई, मानो वह उसकी शोभा के अवलोकनार्थ ही आई हो । तदनन्तर इन्द्र ने स्वयं जगत्गुरु शान्तिनाथ भगवान को लेकर कुछ अन्य देवों के संग महाराज विश्वसेन के प्रांगण में प्रवेश किया । देवों के द्वारा देवोपम सुशोभित किए हुए उस राजप्रासाद के प्रांगण में सौधर्म इन्द्र ने भगवान को सिंहासन पर विराजमान किया । उस समय महाराज विश्वसेन की देह रोमांचित हो उठी थी एवं वे महत् आश्चर्य के संग नेत्र विस्फारित कर अपने पुत्र (भगवान) को निहारने लगे । उस समय भगवान अपनी कान्ति से चन्द्रमा के सदृश मनोज्ञ प्रतीत हो रहे थे, देखने में बहुत प्रिय लगते थे, तेज में सूर्य के समतुल्य थे एवं समस्त आभरणों से सुशोभित थे । इन्द्राणी (शची) ने माता की मायानिद्रा का निवारण किया एवं उन्हें जगाया । तब वह महारानी ऐरा प्रसन्न होकर अपने परिवार के सदस्यों के संग अपने पुत्र को देखने लगी । उस समय वे शिशु भगवान अपनी कान्ति से सूर्य को परास्त कर रहे थे, इसलिये ऐसे प्रतीत होते थे, मानो तेज का समूह ही एक स्थान पर आकर प्रगट हो गया हो तथा आभूषणों से वे ऐसे आभासित होते थे मानो भूषणांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो । उस समय भगवान के माता-पिता इन्द्राणी के संग इन्द्र को अवलोक कर बहुत ही प्रसन्न हुए, क्योंकि उनके समस्त मनोरथ पूर्ण हो चुके थे ॥११०॥ तदनन्तर श्री शान्तिनाथ का पुण्य प्रकट करने के लिए इन्द्र ने देवों के साथ प्रमुदित होकर उत्तम स्तुति वाक्यों से माता-पिता की प्रशंसा की । वह कहने लगा 'आप धन्य हैं, आप जगत् पूज्य हैं, तीनों लोक आप की वन्दना करते हैं, देव भी आप की वन्दना करते हैं, आप चतुर हैं, महा भाग्यशाली हैं एवं कल्याणगामी हैं । संसार में आप दोनों ही सौभाग्य का भोग करनेवाले हैं, आप ही उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हैं, आप ही ज्ञानी हैं, आप ही लोकमान्य हैं, आप ही श्रेष्ठ हैं, सौभाग्यलक्ष्मी से सुशोभित हैं एवं समस्त नृपतियों में अग्रणी हैं । आप के पुण्य कर्म के अद्भुत उदय से ही समस्त गुणों की खान, गुरुओं के गुरु तीनों लोकों के चूड़ामणि एवं सर्वोत्तम-श्री तीर्थंकर भगवान ने आपके कुल में अवतार लिया है । जीवों को समस्त तत्वज्ञान प्रगट करनेवाले श्री तीर्थंकर रूपी ये महान सूर्य ऐरा देवी रूपी पूर्व दिशा में राजा विश्वसेन रूपी उदयाचल पर्वत से प्रगट हुए हैं। ये भगवान अज्ञान रूपी अन्धकार का 84444. 444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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