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विद्याओं में निपुण तथा भव्य धर्मात्मा को मोक्ष पहुँचाने के लिए संगी बतलाते हैं । आपकी आत्मा पवित्र है, आप गुणशाली हैं तथा संसार से भयभीत प्राणियों की शरण हैं; इसलिए आप को नमस्कार है। आप जगत् के स्वामी हैं, दश धर्मों को उत्पन्न करने के योग्य विशाल क्षेत्र हैं, सज्जनों को प्रसन्न करनेवाले हैं तथा दिव्य मूर्ति को धारण करनेवाले हैं, इसलिए आप को बारम्बार नमस्कार है । हे प्रभो ! आपकी प्रवृत्ति परिग्रह रहित है । आप सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्रों को धारण करनेवाले हैं। आप अत्यन्त बलवान हैं एवं सज्जनों के गुरु हैं, इसलिए आप को बारम्बार नमस्कार है । आपकी निर्मल काया स्वेद-रहित है, मल रहित है, आपका रुधिर दुग्ध के समतुल्य श्वेत है, आपका संहनन वज्रवृषभनाराच है, संस्थान समचतुररस्र है, आपकी काया अत्यन्त रूपवान है, अत्यन्त सुगन्धित है, सम्पूर्ण सुलक्षणों से सुशोभित है, अनन्त शक्ति को धारण करनेवाली है तथा आप के वचन प्रिय तथा समस्त जीवों का हित करनेवाले हैं-ये दश सुन्दर अतिशय आपकी काया के संग प्रगट हुए हैं, इसलिए आपको नमस्कार है, नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है ॥९०॥ इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक गुण आप में हैं । आप शान्ति प्रदान करनेवाले हैं, श्रीमान् हैं एवं ज्ञान के सागर हैं, इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार है । हे संसार के स्वामी ! आप उपमा रहित हैं एवं अनेक महिमाओं से मण्डित लक्षणों से शोभायमान हैं; इसलिए आपको नमस्कार है । हे देव ! इस प्रकार आपकी स्तुति कर हम आप से कोई कुछ याचना नहीं कर रहे हैं, क्योंकि आप तो तीनों लोक के साम्राज्य के अधिपति हैं तथा हमें उसका लोभ नहीं है । हे स्वामिन् ! आप हमें निर्मल रत्नत्रय दीजिये, समाधि मरण दीजिये, हमारे अशुभ कर्मों का नाश कीजिये एवं अपने शुभ गुण हमें प्रदान कीजिये । हे श्री जिनराज ! अधिक प्रार्थना से भला क्या लाभ है ? भव-भव में आप के प्रति होनेवाली प्रगाढ़ भक्ति केवल हमें दीजिये।' इस प्रकार स्तुति कर इन्द्रादि देवों ने भगवान के गुण प्राप्त करने के लिए अथवा मोक्ष प्राप्त करने के अभिप्राय से मस्तक नवा कर श्री शान्तिनाथ के चरण कमलों में अपार प्रसन्नता पूर्वक
|२१४ नमस्कार किया । वे भगवान संसार मात्र को शान्ति प्रदाता थे, उनके सम्पूर्ण पाप शान्त हो गए थे एवं वे स्वयं शान्त थे, यही समझ इन्द्रों ने उनका सार्थक नामकरण 'शान्ति' किया । तदनन्तर इन्द्र ने भगवान को ऐरावत गजराज पर विराजमान किया एवं तत्पश्चात् इन्द्रादिक समस्त देवगण पूर्व के सदृश दुन्दुभी आदि वाद्य, गीत-नृत्य, 'जय-जय' घोष शब्द करते हुए एवं विपुल विभूति के संग व्योम का अतिक्रम कर अति