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________________ श्री ना थ ॥२०॥ तदनन्तर सौधर्म इन्द्र ने 'जय-जय जय' इस प्रकार तीन बार कह कर अत्यन्त प्रसन्नता से भगवान के मस्तक पर स्थूल, मनोहर एवं निर्मल प्रथम धारा छोड़ी । हर्षोल्लासित हुए उन कोटि-कोटि देवों में 'जय जय' निनाद का कोलाहल मच गया एवं 'जय हो, आप की वृद्धि हो' - इस प्रकार के तुमुल उद्घोषों से समस्त दिशायें गुन्जित हो गईं । तदनन्तर समस्त कल्पवासी इन्द्रों ने संस्कार किये हुए सुवर्ण कलशों से भगवान के ऊपर गज की सूंड़ के आकार की स्थूल धारा छोड़ी। भगवान के मस्तक पर पड़ती हुई दुग्ध श्री के सदृश 'श्वेत वह जल की धारा ऐसी भव्य प्रतीत होती थी मानो वेग से बहती हुई किसी दूसरी गंगा नदी शां का प्रवाह हो । पर भगवान में अनन्त शक्ति थी एवं उनकी काया वज्रवृषभ - नाराच संहननधारी थी, इसलिये वे अपनी महिमा से लीलापूर्वक मेरु पर्वत के सदृश उस धारा की उपेक्षा कर रहे थे । वह धारा ति जिस पर्वत पर पड़ती थी, उसके खण्ड-खण्ड हो जाते थे; परन्तु भगवान की असीम शक्ति के समक्ष वह पुष्पों के समतुल्य हो जाती थी। अभिषेक करते समय निर्मल जल की धारायें भगवान की देह को स्पर्श कर दूर आकाश में फैलती हुई ऐसी मनोज्ञ प्रतीत होती थीं मानो भगवान की देह के स्पर्श से वे पापों से छूट गई हों एवं मुक्त होकर ऊपर को जा रही हों। भगवान के अभिषेक के जल की शीतल धाराएँ कुछ तिरछी भी जा रही थीं एवं ऐसा आभास हो रहा था, मानो दिशा रूपी रमणियों के कणों में अलंकृत मुक्ता ही हों । पर्वत रूपी भगवान के मस्तक पर मेघ रूपी इन्द्र के द्वारा प्रक्षालित क्षीरसागर के जल की धारा ऐसी आभासित हो रही थी मानो कोई निर्झर ही हो । कलशों के मुख पर रखे हुए पुष्पों के संग वह जल नीचे पड़ता था; इसलिये वह जल उन पुष्पों से स्मित की उत्तम शोभा को प्राप्त होता था ॥ ३० ॥ उस पर्वत पर कहीं शुद्ध स्फटिक की भूमि थी, कहीं नील मणियों की भूमि थी एवं कहीं विद्रुम मयी भूमि थी; इसलिये वह जल की धारा भी उन भूमियों के सम्बन्ध से अनेक प्रकार से सुशोभित थी । वह स्वच्छ जल का प्रवाह मन्दराचल पर्वत से नीचे भूमि तक पड़ता हुआ ऐसा भव्य प्रतीत होता था, मानो वह मन्दराचल में नहीं समाने के कारण ही नीचे गिर रहा हो। उस समय महा सुगन्धित धूप प्रज्वलित हो रही थी, दीपक के जलने से प्रकाश हो रहा था, देव एवं बन्दीजनों के द्वारा अभिषेक के समय के मंगल गीत गाये जा रहे थे, किन्नरी देवियाँ भी भगवान के अभिषेक के समय में मनोहर गीत गा रही थीं, देवियों का समूह अनेक प्रकार के उत्तम नृत्य कर रहा था, गन्धर्व देव भी गीत गा रहे थे, देवों के कर्णप्रिय वाद्य बज रहे थे; 'जय', पु रा ण शां ति ना थ रा ण २१०
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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