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को तथा समस्त व्योम को घेर कर बैठ गईं । तदनन्तर परम आनन्द को धारण करते हुए सौधर्म इन्द्र ने समस्त इन्द्रों एवं देवों के संग भगवान का अभिषेक करना प्रारम्भ किया । उस समय देवों के नगाड़े आकाश में गम्भीर नाद के साथ बजने लगे एवं देवांगनाएँ आनन्दित होकर मनमोहक नृत्य करने लगीं । उस समय सुगन्धित धूप का धुंआ चारों ओर फैल गया एवं देवों ने 'शान्ति तुष्टि पुष्टि' देनेवाले अनेकानेक अर्घ्य पुण्यार्थ समर्पित किये । इन्द्रों ने एक दिव्य मण्डप बनाया, जिसमें समस्त देव बिना किसी बाधा के बैठ गये । उस मण्डप में कल्पवृक्षों से उत्पन्न सुवर्ण एवं मुक्ताओं की मालाएँ लटक रही थीं , जो पुण्य की पंक्तियों के सदृश प्रतीत होती थीं । तदनन्तर सौधर्म इन्द्र ने भगवान श्री शांतिनाथ का प्रथम अभिषेक करने के लिए सर्वप्रथम प्रस्तावना विधि की एवं तत्पश्चात् कलशोद्धार किया अर्थात् कलश हस्त में लिया ॥१०॥ तदुपरान्त ईशान इन्द्र ने भी आनन्दित होकर सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित तथा चन्दन से चर्चित कलश हस्त में लिया । शेष कल्पवासी इन्द्र आनन्द सहित 'जय-जय' घोष (निनाद) करने लगे एवं अभिषेक विधि में उनके परिचायक बने । समस्त इन्द्राणियाँ, समग्र देवियाँ, समग्र अप्सरायें हस्त में मंगल द्रव्य लेकर परिचारिकायें बनीं । जिन कलशों में जल लाया गया था, वे सुवर्ण के बने हुये थे, उनका मुख एक योजन चौड़ा था, आठ योजन की उनकी गहराई थी, मणियों की किरणों से वे व्याप्त थे एवं मोतियों की मालाएँ उन पर लटक रही थीं। उन कलशों में देव क्षीरसागर का जल लाने गये थे एवं वे मेरु पर्वत से लेकर क्षीरसागर तक पंक्तिबद्ध खड़े होकर जल ला रहे थे । भगवान श्री शान्तिनाथ स्वयम्भू हैं, स्वयं पवित्र हैं, दुग्ध के सदृश श्वेत निर्मल उनका रुधिर है। इसलिये क्षीरसागर के जल के अतिरिक्त अन्य कोई जल उनकी काया को स्पर्श करने योग्य नहीं है, यही समझ कर अति आननिदत होकर देव उनके अभिषेक हेतु क्षीरसागर का ही जल लेकर आये थे । जल से भरे हुए उन कलशों से आकाश व्याप्त हो गया था एवं ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह संध्या के पीतवर्णी मेघों से ही आप्लावित हो (भर) गया हो । भगवान का अभिषेक करने के लिये इन्द्र ने अपनी अनेकानेक भुजाएँ बना ली थीं एवं प्रत्येक भुजा आभूषणों से सुशोभित थी-इसलिये वह इन्द्र स्वयं ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूषणांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो । कण्ठ में पड़ी हुई मुक्तामाला से सुशोभित इन्द्र ने सुवर्ण से निर्मित कलशों को अपनी सहस्र भुजाओं से ऊपर उठा रखा था, इसलिये उस समय वह इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था मानो भाजनांग जाति का कल्पवृक्ष ही हो
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