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________________ ज्ञानों को धारण कर माता के गर्भ में अवतीर्ण हुए थे, उसी सयम वे अहमिन्द्र भी आपको नमस्कार करते हैं एवं अपने अनगत देवों के संग प्रत्येक इन्द्र भी आपको नमस्कार करते हैं । हे नाथ ! मक्ति रमणी आप ही पर आसक्त हुई है एवं आपकी प्राप्ति की अभिलाषा में उत्सुक हो रही है । आपमें समस्त गुणराशि चन्द्रमा की कला के समान वृद्धि को प्राप्त हो रही है । अतः हे जगत्गुरु, आपको नमस्कार है । हे कर्मों के नाश करनेवाले, आप को नमस्कार है । आप भव्य प्राणी रूपी पद्म पुष्यों के लिए सूर्य के सदृश हैं एवं गुणों के सागर हैं, इसलिये आप को नमस्कार है । हे प्रभो ! आप चक्रवर्ती हैं, धर्म चक्रवर्ती हैं एवं कामदेव हैं। इसलिये आप को नमस्कार है । हे देव ! मैं आपके चरणकमलों को अत्यन्त आदर के साथ मस्तक पर धारण करता हूँ।' इस प्रकार इन्द्र ने भगवान की स्तुति की, उनको अपने अंक (गोद) में बिठाया एवं मेरु पर्वत हेतु प्रस्थान करने के लिए अपने हस्त को ऊँचा उठा कर घुमाया अर्थात् सब को संग चलने का संकेत किया ॥२९०॥ 'हे ईश ! आप की जय हो ! हे तीन लोक के स्वामी ! आपकी जय हो । संसार में आपकी यशोवृद्धि निरन्तर होती रहे । हे दयालु, हे नाथ ! आप मेरी रक्षा करें।'-इस प्रकार अपने हृदय की प्रसन्नता व्यक्त करते हुए देवगण तुमुल ध्वनि में भगवान का जयगान कर रहे थे । इसलिये उस समय ऐसा कोलाहल हो रहा था, जिससे समसत दिशाएँ स्तब्ध हो रही थीं । तदनंतर अपनी काया एवं आभरणों की कान्ति से इन्द्रधनुष निर्मित करते तथा जय-जय घोष करते हुए देवगण व्योम में जा पहुँचे । गन्धर्व देवों ने संगीत प्रारम्भ किया एवं ऐरावत गजराज के विशाल दन्तों पर स्थित पूर्वोक्त पद्मपुष्पों पर चन्चल मनोहर अप्सराएं नयनाभिराम नृत्य करने लगीं । इधर-उधर विस्तीर्ण (फैले हुए) देवों के रत्नजड़ित विमानों से परिपूर्ण (भरा हुआ) निर्मल आकाश ऐसा भव्य प्रतीत होने लगा, मानो उसने नेत्र ही खोले (उपाड़े) हों । ईशान इन्द्र ने सौधर्म इन्द्र के अंक में विराजमान श्री जिनेन्द्रदेव के मस्तक पर धवल छत्र लगाया । सनत्कुमार एवं माहेन्द्र-दोनों इन्द्र भगवान पर क्षीरसागर की लहरों के सदृश चँवर दुराने लगे । उस समय की विभूति को देख कर मिथ्यादृष्टि देव भी इन्द्र को प्रमाण मान कर जैन धर्म की श्रेष्ठता में अपनी श्रद्धा प्रकट करने लगे । हस्तिनापुरी से लेकर मेरु पर्वत पर्यंत इन्द्रनील मणियों द्वारा निर्मित नसैनियाँ (सीढ़ियाँ) ऐसी भव्य प्रतीत होती थीं, मानो भक्ति से आकाश ही नसैनी में परिवर्तित हो गया हो ॥३००॥ इन्द्रादिक समस्त देव ज्योतिष पटल का उल्लंघन कर मेरु पर्वत के शिखर पर स्थित महा मनोहर पाण्डुक वन में जा पहुँचे । वह 944 म २०६
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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