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मनोहर मेरु पर्वत धरातल के नीचे एक सहस्र (हजार) योजन विस्तृत है एवं धरातल के ऊपर भी निन्यानवे सहस्र योजन ऊँचा है । उसकी चौड़ाई भूतल के समीप दश सहस्र योजन है एवं वनों से सुशोभित मस्तक पर एक सहस्र (हजार) योजन है । उस पर्वत की सेवा अनेक देव भी करते हैं । मस्तक के ऊपर चूलिका है, जो मूल में द्वादश (बारह) योजन चौड़ी है, शिखर पर चार योजन चौड़ी है, मध्य में आठ योजन चौड़ी है एवं नीचे से ऊपर तक चालीस योजन ऊँची है। वह मेरु पर्वत चारों वन रूपी महा मनोहर वस्त्रों से, सोलह चैत्यालय रूपी आभूषणों से, कूट रूपी दो हस्तों से, पीठ रूपी दो पैरों से, चूलिका रूपी मुकुट से एवं शिला रूपी ललाट से इन्द्र के सदृश शोभायमान था । वह मेरु पर्वत अपने ऊपर अभिषेक होने के कारण श्री जिनेन्द्रदेव का आभारी था एवं देव-देवी भी उसकी सेवा करते थे । पर्वत की ईशान दिशा में एक अत्यन्त विशाल पाण्डुक शिला है, उसी पर सदैव तीर्थंकरों का अभिषेक हुआ करता है । वह पाण्डुक शिला एक शतक योजन लम्बी है, पचास योजन चौड़ी एवं आठ योजन ऊँची है । वह शिला शाश्वत है एवं अर्द्धचन्द्र के आकार की है। वह महा उज्जवल शिला देवों के द्वारा अनेक बार क्षीरसागर के जल से प्रक्षालित की गई है, इसलिये वह पवित्रता की चरम सीमा तक पहुंच गई है। श्री तीर्थंकरों के अभिषेक के लिए उस शिला के मध्य भाग में जो सिंहासन रक्खा है, उसका मुख पूर्व की ओर है एवं रत्नों की किरणों से व्याप्त है ॥३१०॥ उसके पार्श्व (अगल-बगल) में दो स्थिर सिंहासन अन्य भी हैं, जिन पर उत्तिष्ठ (खड़े होकर सौधर्म एवं ईशान इन्द्र भगवान का अभिषेक करते हैं। भगवान के विराजमान होने का सिंहासन पाँच शतक धनुष ऊँचा है एवं ढाई सौ धनुष चौड़ा है। इस प्रकार इन्द्र ने अनेक प्रकार की विधि, नृत्य, गीत, नाद एवं शुभ महोत्सव के संग तीनों लोकों के साथ श्री तीर्थंकर भगवान को उस उच्च सिंहासन पर विराजमान किया एवं शेष समस्त देवों ने अतीव प्रसन्नता से मेरु पर्वत को चतुर्दिक से घेर लिया । पुण्य कर्म के उदय से जिन तीर्थंकर भगवान की सेवा गर्भ में ही समस्त देवों के संग इन्द्रों ने की | थी, जन्म लेते ही मेरु पर्वत पर जिनका अभिषेक एवं पूजन हुआ था, जो समस्त गुणों के सागर हैं एवं कर्मों को परास्त करनेवाले हैं, ऐसे श्री तीर्थंकर भगवान की संसार में जय हो । श्री शान्तिनाथ भगवान ने निर्मल पुण्य कर्म के उदय से ही धर्म के प्रभाव से मनुष्य एवं देव गति में अनेक प्रकार के सुख भोगे एवं फिर धर्म के ही प्रभाव से इन्द्रों ने उनको मेरु पर्वत पर अभिषेक करने के लिए स्थापित किया था,
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