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________________ 4FFFF श्री जिनेन्द्रदेव रूपी सूर्य को प्रगट किया है । इस प्रकार अदृश्य रह कर इन्द्राणी ने माता की स्तुति की । फिर उसने मायामयी निद्रा के प्रयोग से माता को निद्रालु कर दिया एवं उनके समीप एक मायामय शिशु अनुकृति को रख कर उसने अपने दोनों कर (हाथों) से बाल-चन्द्रमा के समतुल्य तीनों लोकों के नाथ श्री तीर्थंकर देव को अतीव प्रसन्नता से उठाया व वहाँ से निकली । शिशु तीर्थंकर के तेज से समस्त संसार प्रकाशित हो रहा था । भगवान की काया का अति दुर्लभ स्पर्श पा कर वह शची अपने चित्त में ऐसा विचारने लगी, मानो श्री तीर्थंकर के जन्म का समस्त ऐश्वर्य उसे ही प्राप्त हो गया हो । हर्षोत्फुल्ल नेत्र से वह शची भगवान के मुखारविन्द को बारम्बार देखकर अत्यधिक प्रसन्न होती रही, जो कि अपनी कान्ति से पूर्ण चन्द्र को परास्त कर रहा था । तदनन्तर भगवान को अपने अंक (गोद) में ले कर गमन करती हुई इन्द्राणी भगवान की काया की किरणों की छटा से ऐसी प्रतीत होती थी मानो सूर्य सहित पूर्व दिशा ही हो । दिक्कमारी देवियाँ अष्टमंगल द्रव्य लेकर इन्द्राणी के आगे-आगे चल रही थीं। उनमें से कोई तो उत्तम छत्र, कोई ध्वजा, कोई कलश, कोई चमर, कोई सुप्रतिष्ठ, कोई श्रृंगार, कोई दर्पण एवं कोई ताल (पंखा) लिए हुई थीं। जिस प्रकार पूर्व दिशा उदय होते हुए सूर्य को उदयाचल पर्वत के शिखर पर, जिस पर मणियाँ दैदीप्यामान हो रही हैं, विराजमान कर देती हैं, उसी प्रकार इन्द्राणी ने भी प्रसूति गृह से बाहर आकर शिशु तीर्थंकर को इन्द्र के हस्तकमलों (हाथों) में विराजमान कर दिया ॥२८०॥ इन्द्र ने इन्द्राणी के हस्त से आदरपूर्वक शिशु भगवान को ले लिया एवं स्नेहपूर्वक उनके अनुपम रूप को नेत्र विस्फारित कर देखने लगा । सूक्ष्म बुद्धि का धारी वह इन्द्र भगवान को देख कर परम सन्तुष्ट हुआ एवं तदुपरान्त भगवान के गुणों का वर्णन कर उनकी स्तुति करने लगा-'हे देव ! आप संसार के स्वामी हैं । हे प्रभो ! आप जगत् के गुरु हैं, आप धर्मतीर्थ के विधाता हैं एवं योगियों के लिए आप महापूज्य हैं । हे प्रभो ! आप इस लोकालोक रूपी गृह में समस्त तत्वों को प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञान रूपी दीपक के धारक होंगे, इसमें कोई संशय नहीं है । हे प्रभो ! आप अपनी वचन रूपी किरणों से अज्ञानान्धकार का निवारण करनेवाले ज्ञान रूपी सूर्य हैं, आप ही मोह रूपी निद्रा में सुप्त समस्त संसार को जाग्रत करायेंगे । हे देव ! आपने अपनी काया की विमल कान्ति से बाह्य अन्धकार को नष्ट कर दिया है, अब भविष्य में अपनी वचन रूपी किरणों से भव्य जीवों के चित्त के अन्तरंग अन्धकार को विनष्ट करेंगे । हे प्रभो ! जिस समय आप तीनों 44444
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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