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अलावा कोई अन्य स्वर्ग ही निर्मित किया गया है । सूर्य-चन्द्र, गृह-नक्षत्र, तारे आदि समस्त ज्योतिषी देव अपनी-अपनी देवांगनाओं के संग निकले। कान्तिमान, लोकपाल व त्रयस्त्रिंशत देवों से रहित श्री जिनेन्द्रदेव के शासन की धर्म-प्रभावना करनेवाले वे समस्त ज्योतिषी देव अपनी विभूति एवं इन्द्रों के संग अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ हुए व्योम को प्रकाशित करते हुए भूतल (पृथ्वी) पर उतरे । इसी तरह असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुवर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार- -ये दश प्रकार के भवनवासी देव अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर अपनी-अपनी देवांगनाओं एवं इन्द्रों के संग अपनी-अपनी विभूति सहित पृथ्वी पर उतरे । भगवान के जन्मोत्सव में अपने-अपने वाहनों पर आरुढ़ अपनी विभूति के संग लोकपाल, त्रयस्त्रिंशत देवों के अतिरिक्त (छोड़ कर ) केवल अष्ट- अष्ट ति विभागों में विभक्त असंख्यात किन्नर, किंपुरुष, महीरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच- ये अष्ट प्रकार के व्यन्तर देव अपने-अपने परिवार के संग केवल पुण्य सम्पादन करने के लिए आये थे || २६०॥ इस प्रकार भगवान के जन्मोत्सव में अपनी-अपनी विभूति के संग चतुर्निकायों के असंख्यात धर्मात्मा देव अनुक्रम व्योम से उतर कर अति शीघ्र अनेक ऋद्धियों से शोभायमान हस्तिनापुरी नगरी में पधारे । देव सैनिक अपने-अपने वाहनों के संग उस नगरी के व्योम, वन, मार्ग आदि सर्वत्र को घेर कर ठहर गये तथा इन्द्राणी पु के संग आये पृथक-पृथक समस्त इन्द्रों से, महोत्सव मनाते हुए असंख्य देवों से राजप्रासाद
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गया । तदनन्तर इन्द्राणी शची ने उस अद्भुत प्रसूति गृह में प्रवेश किया एवं अतीव प्रसन्नता से भगवान के संग-संग माता का दर्शन किया। शची ने जगत्गुरु भगवान की कई प्रदक्षिणायें दीं, उन्हें नमस्कार किया एवं तत्पश्चात् माता के सम्मुख खड़ी होकर उनकी प्रशंसा करने लगी- 'हे माता ! आप आज संसार भर की माता हैं, आप ही कल्याणी हैं, आप ही महादेवी हैं, आप ही पुण्यवती हैं एवं आप ही कीर्तिमती हैं। जो भावी तीर्थंकर श्री त्रिलोकीनाथ कहलाते हैं । उनकी आप माता हैं। इसलिये आज आप सर्वश्रेष्ठ हैं, महापुरुषों के द्वारा पूज्य एवं देवियों से सेवनीय हैं ॥ २७० ॥ यद्यपि यह नारी- जन्म सज्जनों के द्वारा निन्द्य है तथापि आप के सदृश नारी जन्म प्राप्त करना त्रिलोक में प्रशंसनीय है; क्योंकि आप के समकक्ष नारी - जन्म श्री तीर्थंकर की उत्पति का कारण है । जिस प्रकार पूर्व दिशा अन्धकार को नाश करनेवाले सूर्य को प्रगट करती है, उसी प्रकार आपने भी अन्तरंग-बहिरंग दोनों प्रकार के अन्धकार का निवारण करनेवाले
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