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________________ श्लोकों को भी विशेष रीति से समझती हुई वह महादेवी अत्यन्त सुख से समय व्यतीत करती थी । वह महादेवी अपने उदर में तीन ज्ञान के धारक भावी तीर्थंकर को धारण कर रही थीं, इसलिये समस्त ज्ञान में वह स्वभाव से ही धीरता प्रदर्शित कर रही थीं। जिस प्रकार प्रातःकाल के समय गर्भ में जाज्वल्यमान सूर्य को धारण करती, हुई पूर्व दिशा शोभायमान होती है, उसी प्रकार अपने गर्भ से कान्ति से अत्यन्त जाज्वल्यमान अद्भुत बालक भावी श्री तीर्थंकर देव को धारण करती हुई वह महादेवी अत्यन्त उत्तम प्रतीत होती थीं । जिस प्रकार गर्भ (मध्य भाग) में रत्न रहने से पृथ्वी शोभायमान होती है, उसी प्रकार तीनों शलाका पदों से सुशोभित होनेवाले श्रीतीर्थंकर भगवान के गर्भ में अवतरण से महादेवी की शोभा में अपार वृद्धि हो गयी थी। वे भावी तीर्थंकर शुद्ध स्फटिक के सदृश निर्मल थे, देवों के द्वारा पूज्य थे एवं करुणा की साक्षात् मूर्ति थे, इसीलिये उनके उदर में रहते हुए भी माता को किसी प्रकार पीड़ा की अनुभूति नहीं हुई थी। माता के कृश उदर में किसी प्रकार का विकार प्रकट नहीं हुआ था, तथापि गर्भ की वृद्धि तो हुई ही थी-यह केवल भगवान के तेज का ही प्रभाव था । शची (इन्द्राणी) भी स्वयं की भव-मुक्ति की अभिलाषा से गुप्त रूप से देवियों के साथ अत्यन्त आदरपूर्वक माता की सेवा करती थी । सारांश में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वह माता तीनों लोकों में प्रशंसनीय थीं एवं तीनों लोकों की माता तुल्य थीं, क्योंकि धर्मतीर्थ को प्रगट करनेवाले भावी तीर्थंकर की वह जननी थीं ॥१४०॥ कुबेर ने नव मास तक महाराज विश्वसेन के प्रांगण में प्रतिदिन आकाश से सुवर्ण एवं रत्नों की वर्षा की थी। अथानन्तर- ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिवस.प्रातःकाल के भरणी नक्षत्र में शुभ मुहूर्त एवं शुभ लग्न में जिस प्रकार पूर्व दिशा किरणों की विकीर्ण करते हुए सूर्य को प्रगट करती है, उसी प्रकार महासती ऐरा देवी ने सुखपूर्वक पुत्ररत्न को उत्पन्न किया । वह पुत्र तीनों लोकों में परिव्याप्त अपार आनन्द के समूह के सदृश नयनाभिराम था, तीनों श्रेष्ठ निर्मल ज्ञान ही उसके निर्दोष नेत्र थे, वह पूर्णमासी के चन्द्रमा के समतुल्य था, अपनी विमल कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था, भव्य जीव रूपी पद्मों को प्रफुल्लित करनेवाला था, सूर्य के सदृश प्रखर जाज्वल्यमान था एवं रूपाकृति में कामदेव को भी लज्जित (परास्त) करनेवाला था। उस समय समस्त दिशाओं में प्रसन्नता व्याप्त हो गई थी, गगन निर्मल हो गया था एवं भावी स्वामी का जन्म होने से समस्त प्रजाजन को हर्ष उत्पन्न हुआ था। भगवान के जन्म लेने से परिवार के समस्त 4F BF १९६
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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