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________________ 4444 सदस्य स्वयं को धन्य एवं कृतकृत्य मानते थे एवं अतीव आनन्द के समूह से पुण्य का भण्डार भरते थे। भावी तीर्थंकर के उत्पन्न होते ही धर्म के प्रभाव से स्वर्ग में समुद्र की गर्जना के सदृश प्रचण्ड घण्टानाद होने लगा था । देवों के विशालकाय नगाड़े बिना प्रयास ही अपने-आप झंकृत होने लगे थे एवं कोमल सुखदायक शीतल मन्द सुगन्धित वायु प्रवाहित होने लगी थी । यद्यपि आकाश एवं पृथ्वी दोनों ही सुगन्धित पुष्पों की सुगन्धि से व्याप्त हो रहे थे तथापि कल्पवृक्ष विशेषतया उस समय अनेक प्रकार की पुष्पवृष्टि कर रहे थे ॥१५०॥ इन्द्रों के आसन अकस्मात् कम्पायमान होने लगे थे मानो देवों को हठात् ऊँचे आसन से पतित कर नीचे गिरा रहे हों। भगवान के जन्म लेने के प्रभाव से जन्म-कल्याणक की विधि को सूचित करनेवाले तथा किरणों से व्याप्त देवों के मुकुट शीघ्र ही नत हो मये, नीचे की ओर झुक गये । उन आश्चर्यों को देख कर इन्द्रों ने अपने अवधिज्ञान से तीर्थंकर भगवान का जन्म होना जाना एवं उसी समय वे जन्म-कल्याणक के लिए सन्नद्ध हो गए । ज्योतिषी देवों के विमानों में धर्म को सूचित करनेवाला मनोहर सिंहनाद हुआ एवं भगवान के जन्म को सूचित करनेवाले शेष समस्त आश्चर्य प्रकट हुए । व्यन्तर देवों के आवासों में गम्भीर भेरी नाद हुआ तथा आसनों का कम्पायमान होना आदि सर्वप्रकारेण आश्चर्य प्रगट हुए थे । भवनवासी देवों के भवनों में प्रचण्ड शंखध्वनि हुई थी एवं जन्म-कल्याणक की विधि को सूचित करनेवाले शेष समस्त आश्चर्य प्रगट हुए थे । इस प्रकार आश्चर्यों को देखकर चतुर्निकायों के इन्द्रों ने अपने-अपने अनुगत देवों के संग अपने-अपने अवधिज्ञान से भगवान का जन्म होना जाना एवं अपने-अपने कार्य करने में प्रवीण वे समस्त इन्द्रादि देवगण अत्यन्त आनन्दित होकर अपनी-अपनी देवांगनाओं के संग पुण्य के सागर जन्म-कल्याणक महोत्सव आयोजित करने के लिए प्रस्तुत हुए । तदनन्तर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की आज्ञा से देवों की सेना जयघोष करती हुई समुद्र की लहरों के समतुल्य अनुक्रम से स्वर्ग से निकलने लगी । सर्वप्रथम वृषभ, फिर रथ, अश्व, गज, नृत्य करनेवाले गन्धर्व एवं सेवक वर्ग-इस अनुक्रम से इन्द्र की सेना निकली थी ॥१६०॥ प्रत्येक इन्द्र की यह सप्त प्रकार की सेना पृथक-पृथक थी एवं प्रत्येक सेना के भी सप्त-सप्त भेद थे । वृषभों की सेना सप्त प्रकार की थी, अश्वों की सेना भी सप्त प्रकारेण ही थी। इसी प्रकार सप्त सेनायें सप्त-सप्त प्रकार की थीं। वृषभों की प्रथम सेना में दिव्य मूर्ति को धारण करनेवाले चौरासी लक्ष वृषभ थे, द्वितीय सेना में इससे द्विगुणित अर्थात् 4 Fb PER १९७
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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