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________________ | है। अधिक कहने से क्या लाभ?.पापों को शान्त करने के लिए रात्रि व्यतीत हो गयी है एवं प्रभात के होने से बहुत-से प्राणी धर्मध्यान में प्रवृत्त हो गए हैं । इसलिए हे देवी ! अब शीघ्र ही शैय्या त्यागिए एवं प्रातःकाल के समय स्तोत्र का स्मरण कर धर्म का सेवन कीजिए । हे सुमंगले ! इसी धर्म के सेवन करने से ही इहलोक में इन्द्राणी आदि से उत्पन्न हुए एवं परलोक में स्वर्गादिकों से उत्पन्न हुए मंगलों (कल्याणकों) को आप प्राप्त होंगी।' सती महादेवी ऐरा पहिले ही जाग गईं थीं, फिर भी बन्दीजनों ने | नियमानुसार उन्हें इस प्रकार प्रबोधित किया । उस समय महादेवी ऐरा का मुख उत्तम स्वप्नों के दिखने के कारण कमलिनी के समान प्रफुल्लित हो रहा था । वह शैय्या से उठीं एवं समस्त मंगल कार्यों की सिद्धि के लिए धर्म का कारणभूत भगवान का स्मरण करने लगीं । उन्होंने स्नानादि नित्य कर्म सम्पन्न किया, वस्त्राभरण पहने एवं फिर वह कल्पबेल के सदृश बाहर निकलीं । उस समय श्वेत छत्र से वह शोभायमान हो रही थीं। जिनवाणी के सदृश सब को प्रिय लग रही थीं। चारों ओर अवगुंठन (परदा) आदि डालकर अपना महोदय प्रकट कर रही थीं । जिस प्रकार चन्द्रमा की रेखा रात्रिगमन में प्रवेश करती है, उसी प्रकार अपनी अन्तरंग विशेष सेविकाओं के संग रानी ने महाराज की सभा में प्रवेश किया ॥२०॥ महाराज ने रानी को देखकर उनका योग्य अभिवादन किया एवं अपने स्नेह को सूचित करते हुए अपना अर्ध सिंहासन उन्हें आसन हेतु प्रदान किया । महादेवी आसन पर सुख से विराजमान हुईं एवं अपने प्रसन्न मुखकमल से तीनों ज्ञानों को धारण करनेवाले अपने पति से कहने लगीं-'हे देव ! रात्रि के शेष प्रहर मैं सुख से सो रही थी । उस समय मैंने महा अभ्युदय को सूचित करनेवाले षोडश स्वप्न देखे । हे देव ! वे स्वप्न अत्यन्त अद्भुत माहात्म्य को प्रकट करनेवाले हैं तथा उत्तम फल सम्पादन करने में समर्थ हैं। मैं उनका वर्णन करती हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनिए-(१) पर्वताकार विशालकाय गजराज, (२) घनघोर हुंकार करता हुआ उत्तुंग वृषभ, (३) पर्वत के शिखर को उल्लंघन करता हुआ सिंह, (४) ऐरावत गजराजों के द्वारा जलाभिषिक्त १८७ लक्ष्मी, (५) लटकती हुई दो मालायें, (६) व्योम (आकाश) को प्रकाशित करता हुआ चन्द्रमा, (७) उदय होता हुआ सूर्य, (८) दो सुन्दर मत्स्य (मछलियाँ) (९) अमृत से परिपूर्ण दो कुम्भ, (१०) स्वच्छ जल से परिपूर्ण एवं पद्म पुष्पों से शोभायमान सरोवर, (११) रत्नों से परिपूर्ण समुद्र, (१२) सुवर्ण निर्मित सिंहासन, (१३) स्वर्ग से आता हुआ विमान, (१४) पृथ्वी विदीर्ण कर निकलता हुआ नागेन्द्र भवन, EF. PF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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