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________________ की शान्ति करने वाले हैं, धर्मात्मा जीवों के शरण हैं, संसार-काम आदि के सन्ताप से सन्तप्त जीवों के समस्त दुःख निवारण करने वाले हैं । मैं श्री शान्तिनाथ भगवान को समस्त दुःख एवं पाप विनष्ट करने के लिए तथा समस्त व्यसनों की शान्ति करने के लिए नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार श्री शान्तिनाथ पुराण में अहमिन्द्र के गर्भावतरण का वर्णन करनेवाला बारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥१२॥ तेरहवाँ अधिकार अथानन्तर-वह मंगल करनेवाली महादेवी ऐरा प्रातःकाल में तुरई आदि वादित्रों की मधुर ध्वनि सुनकर जगीं एवं बन्दीजनों के मंगल गीत सुनने लगीं । बन्दीजन कहने लगे-'हे देवी ! अब आप के जागने का समय हो गया है, क्योंकि यह प्रातःकाल का समय धर्मध्यान के योग्य है । इस योग्य समय में कितने ही जैन धर्मावलम्बी मोक्ष प्राप्त करने के निमित्त चन्चल योगों का निरोध कर सुख प्रदायक उत्तम सामायिक करते हैं । कितने ही प्राणी धर्मसाधन करने के निमित्त एकाग्रचित्त से समस्त विनों का निवारण करनेवाले 'चपरमेष्ठियों के नमस्कार मन्त्रों का जाप करते हैं । मोख रूपी रमणी में आसक्त हुए कितने ही प्राणी शे या त्याग कर चित्त का निरोध कर कमों का विनाश करनेवाला अरहन्तों का ध्यान करते हैं । इस समय किर ने ही धीर-वीर मुनि केवल मोक्ष प्राप्त करने के अभिप्राय से देह से ममत्व का त्याग कर संसार रूपी सागर से उत्तीर्ण होने के लिए जलपोत के सदृश कायोत्सर्ग को धारण करते हैं । इसी प्रातःकाल के समय कितने ही प्राणी कार्य से अनुराग त्याग कर धर्म से प्रेम करने लग जाते हैं । इसलिए हे देवी ! आप भी इस समय धर्म से ही प्रीति कीजिए । यह संसार अनित्य है-प्राणियों को यही बतलाने के लिए चन्द्रमा अस्ताचल के सम्मुख हो गया है, उसकी किरणें भी मन्द पड़ गईं हैं एवं कान्ति भी मन्द हो गई है । जिस प्रकार सूर्य की किरणों से समस्तं कमल प्रफुल्लित हो उठता हैं, उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव के शुभ वचन | १८६ रूपी किरणों से भव्य जीवों का मन रूपी कमल प्रफुल्लित हो उठता है ॥१०॥ जिस प्रकार प्रातःकाल के समय सूर्य के सम्पर्क से कुमुदिनियों का समूह संकुचित हो उठता है, उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव के वचनों से अभव्य जीवों का हृदय कमल भी संकुचित हो जाता है। जिस प्रकार प्रातःकाल में सूर्योदय होने पर रात्रि का अन्धकार सब नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव के वचनों से अज्ञान नष्ट हो जाता Fb PR
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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