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________________ श्री ना थ उदयाचल से प्रकट होता हुआ सूर्य देखा, जो कि अन्धकार का विनाश कर रहा था एवं ऐसा प्रतीत होता था मानो सुवर्ण से निर्मित कलश ही हो । अष्टम स्वप्न में उसने रत्नों से ढँके हुए दो सुवर्णमय कलश देखे, जो ऐसा आभास दे रहे थे, मानो श्रीजिनेन्द्रदेव के मुखकमल से आवृत्त स्नान करने हेतु पात्र ही हों । नवम स्वप्न में उसने स्वच्छ जल से परिपूर्ण पक रहित एक सरोवर देखा, जिसमें कुमुदिनी एवं कमल दोनों ही विकसित थे एवं उस मनोहर सरोवर में दो मीन (मछलियाँ) क्रीड़ा कर रही थीं । दशम स्वप्न में उसने एक सरोवर देखा, जिसका जल तैरते हुए कमलों के पराग व केशर से पीतवर्णी (पीला) हो रहा था एवं ऐसा शां प्रतीत होता था मानो वह सुवर्ण से चूर्ण से ही भरा हुआ हो । एकादश स्वप्न में उसने एक समुद्र देखा, जो कि क्षुब्ध हो रहा था, जिसमें लहरें उठ रही थीं, अनेक रत्न जिसमें पड़े हुए थे एवं ऐसा परिलक्षित ति हो रहा था मानो अवतीर्ण होनेवाले अपने भावी पुत्र (तीर्थंकर) के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी र का स्थान ही हो । द्वादश स्वप्न में उसने सुवर्ण से निर्मित एक सिंहासन देखा, जो बहुत उत्तुंग था, अनेक मणियाँ उसमें जड़ी हुई थीं एवं वह ऐसा प्रतीत होता था मानो मेरु पर्वत का एक उत्तुंग शिखर ही हो ॥ २९०॥ त्रयोदश स्वप्न में उसने एक देव विमान देखा, जो बहुमूल्य रत्नों से दैदीप्यमान था एवं ऐसा परिलक्षित होता था मानों देवों के द्वारा निर्मित प्रसूति भवन ही हो । चतुर्दश स्वप्न में उसने पृथ्वी को विदीर्ण कर प्रकट होता हुआ नागेन्द्र का भवन देखा, जो नयनाभिराम था, सुवर्ण व रत्नों से निर्मित था एवं ऐसा आभासित हो रहा था, मानो श्रीजिनालय ही हो । पन्चदश स्वप्न में उसने अत्यन्त दैदीप्यमान रत्नों की महाराशि देखी, जो ऐसी परिलक्षित होती थी मानो अपने पुत्र के निःस्वेद ( पसीना न आना ) आदि गुणों का समूह ही हो । षोडश स्वप्न में उसने धूम्र रहित जलती हुई जाज्वल्यमान अग्नि देखी, जो ऐसी प्रतीत होती थी मानो अपना महा उज्ज्वल प्रताप ही अग्नि का मूर्तिमंत रूप धारण कर उपस्थित हो गया हो । इन समस्त स्वप्नों के अन्त में उसने सर्व लक्षणों से सुशोभित, सुवर्ण की कान्तिवाले, विशाल देहधारी गजराज को अपने मुखकमल में प्रवेश करता हुआ देखा । तदनन्तर जिस प्रकार सीप में मोती का बिन्दु प्रवेश करता है, उसी प्रकार शुभ कर्म के उदय से भाद्रपद कृष्णा सप्तमी के दिन शुभ भरणि नक्षत्र में महाराज मेघरथ का जीव सर्वार्थसिद्धि विमान से चय कर महादेवी ऐरा के पवित्र गर्भ में प्रविष्ट हुआ । इस प्रकार पुण्य कर्म के उदय से सर्व प्रकारेण मलों से रहित भगवान श्री शान्तिनाथ अपने कर्म पु रा ण श्री शां ति ना थ पु रा ण १८४
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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