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________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी इन देवियों से कहा कि महाराज विश्वसेन की महादेवी ऐरा के पवित्र गर्भ से तीर्थंकर चक्रवर्ती एवं कामदेव-इन तीनों पदों से सुशोभित भगवान श्री शान्तिनाथ अवतार लेंगे । इसलिए तुम अति शीघ्र वहाँ पहुँचो एवं भगवान के जन्म के लिए योग्य उत्तम पवित्र द्रव्य से महारानी ऐरा की गर्भशोधना करो । इन्द्र की आज्ञा से देवियों ने पवित्र द्रव्यों से गर्भ का शोधन कर उसे शुद्ध स्फटिक के समान कर दिया । 'श्री' देवी ने भगवान की माता में लक्ष्मी का, 'ही' देवी ने लज्जा का, 'धृति' देवी ने धैर्य का, 'कीर्ति' देवी ने स्तुति का, 'बुद्धि' देवी ने ज्ञान का एवं 'लक्ष्मी' देवी ने सम्पदा का रूप स्थापन किया । इस प्रकार वे देवियाँ माता में अपने-अपने गुणों की अलग-अलग स्थापना कर पुण्य उपार्जन (सम्पादन) करने के निमित्त से उनकी सेवा - सुश्रुषा करने लगीं । अथानन्तर-महाराज विश्वसेन के मोतियों से सुशोभित, रत्नमय, मनोहर भवन में सुन्दर कोमल शैय्या पर ऋतुस्नान करने के पश्चात् महारानी ऐरा शयन कर रही थीं। उसी दिन रात्रि के शेष (पिछले ) प्रहर में रानी ऐरा देवी ने भगवान के जन्म को सूचित करनेवाले एवं श्रेष्ठ फल प्रदायक षोडश स्वप्न देखे । उन्होंने प्रथम स्वप्न में शरद् ऋतु के मेघ सदृश गरजता हुआ एवं गजराज ऐरावत के समकक्ष उत्तुंग मदोन्मत्त गजराज देखा । द्वितीय स्वप्न में एक वृषभ देखा जिसका स्कन्ध नगाड़े के समान समन्नत था, वह स्थूलकाय था, धीरे-धीरे हुँकार रहा था एवं ऐसा प्रतीत होता था मानों अमृत की राशि ही हो ॥ २८०॥ तृतीय स्वप्न में उसने एक सिंह देखा, चन्द्रमा की छाया के सदृश उसकी काया थी, उसका स्कंध रक्तवर्णी (लाल ) था एवं ऐसा आभास होता था मानो अपने पुत्र का संचय (एकत्रित ) किया हुआ पराक्रम ही हो । चतुर्थ स्वप्न में उन्होंने लक्ष्मी को देखा, जो उच्च सुवर्ण सिंहासन पर विराजमान (बैठी ) थी, ऐरावत गजराज उसे सुवर्ण के कलशों से स्नान करा रहे थे वह लक्ष्मी उसे अपनी ही लक्ष्मी प्रतीत ( समृद्धि ) होती थी । पंचम स्वप्न में उसने आनंद से झूलती हुईं दो मालाएँ देखीं, मालाओं की सुगन्धि से उन्मत्त भ्रमर उन पर गुन्जार कर रहे थे एवं उन भ्रमरों के झंकारों से वे मालाएँ ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो उन्होंने संगीत ( गुंजन ) करना ही आरम्भ कर दिया हो । षष्ठ (छट्ठे ) स्वप्न में उसने चन्द्रमा देखा, जो समस्त कलाओं से पूर्ण था, ताराओं सहित था, अत्यंत शीतल चाँदनी उससे विकीर्ण हो रही थी, अन्धकार को वह विनष्ट कर रहा था एवं ऐसा आभास हो रहा था मानो भगवान की माता का चन्द्रमुख ही हो । सप्तम स्वप्न में उसने श्री शां ति ना थ पु रा ण १८३
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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