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________________ थी । महाराज विश्वसेन अपने पुण्यकर्म के उदय से सुयोग्य रानी ऐरा के साथ अवस्थानुकूल तृप्तिदायक सांसारिक सुख भोगते थे । अथानन्तर-सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से जब यह ज्ञात कर लिया कि महाराज मेघरथ के जीव अहमिन्द्र की आयु षट् (छः) मास ही शेष रह गई है, तब उसने कुबेर से कहा-'कुरुजांगल देश की हस्तिनापुरी नगरी में महाराज विश्वसेन राज्य करते हैं, उनकी महारानी ऐरा के शुभ गर्भ से धर्म के नाथ, जगतपूज्य, मुक्ति रूपी रमणी के भर्ता एवं चराचर समस्त जीवों को शान्ति प्रदान करनेवाले षोडश (सोलहवें) तीर्थंकर भगवान श्री शान्तिनाथ अवतार लेंगे । इसलिए , हे धनाधीश ! पुण्य सम्पादन (उपार्जन) करने के हेतु तुम वहाँ जाओ एवं अतिशय प्रसन्नता के संग उनके प्रांगण में अतुल आश्चर्य प्रकट करनेवाली रत्नों की अजस्र वर्षा करो' ॥२६०॥ उपरोक्त उक्ति सुन कर उस कुबेर के भाव द्विगणित हो गए एवं वह इन्द्र की आज्ञा को शिरोधार्य कर पुण्य सम्पादन करने के लिए शीघ्र ही महाराज विश्वसेन के नगर में आया । वह प्रतिदिन महाराज विश्वसेन के राजप्रांगण में बहुमूल्य वैडूर्य, पद्मराग, आदि मणियों एवं उत्तम सुवर्ण की वर्षा करने लगा । रत्नों की वर्षा में गंगा, सिन्धु आदि नदियों के जल के शीतल कण थे, भगवान के जन्म को सूचित करनेवाले कल्पवृक्षों से उत्पन्न अनेक प्रकार के मनोहर सुगन्धित पुष्प थे । रत्नों की धारा गजराज ऐरावत की सूंड़ के समकक्ष विस्तृत थी एवं ऐसी मनोज्ञ प्रतीत होती थी मानो साक्षात् धर्म रूपी वृक्ष के अंकुरों की श्रृंखला ही हो । गगन (आकाश) को आच्छादित कर गिरती हुई रत्नों की धारा ऐसी प्रतीत होती थी, मानो स्वर्ग की लक्ष्मी ही धारा बन कर महादेवी ऐरा की सेवा करने के निर्मित पृथ्वी पर आ रही हो । व्योम (आकाश) से पतित (गिरती हुई) सुवर्णमयी वर्षा ऐसी प्रतीत होती थी, मानो अपनी शोभा से मनुष्यों को पुण्य का फल प्रत्यक्ष प्रदर्शित कर रही हो । महाराज विश्वसेन का प्रासाद रत्न एवं सुवर्ण की घनघोर वृष्टि से पूर्णतया आप्लावित हो उठा । इस अद्भुत प्रभाव (अतिशय) को देख कर समस्त प्रजा धर्माचरण करने में तत्पर हो गयी । ऐरा || महादेवी का महल देवों ने सुवर्ण एवं रनों की वर्षा से आप्लावित कर दिया,फलस्वरूप मणियों की असंख्य किरणों से उद्भासित वह राजमहल ताराओं के समूह के समतुल्य दृष्टिगोचर होता था। इस प्रकार वह कुबेर प्रसन्न होकर पुण्य सम्पादन करने के निर्मित षट् (छः) मास तक प्रतिदिन बहुमूल्य रत्नों की वर्षा करता रहा ॥२७०॥ अथानन्तर-प्रथम स्वर्ग के इन्द्र ने धर्म की प्रेरणा से पद्मद्रह आदि के कमलों पर निवास Fb EF
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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