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________________ श्री शां ति ना थ पु रा ण सरस्वती के सदृश प्रिय थीं, विज्ञान में कुशल थीं, चतुर थीं, कलाओं की ज्ञाता थीं। उनका मुख सदा प्रसन्न रहता था एवं उनका स्वर अत्यन्त ही मिष्ट था । धर्मकार्यों में गमन करते समय शुभ लक्षणों से सुशोभित उनके दोनों चरण ऐसे प्रतीत होते थे, मानो अशोक वृक्ष के पत्र (पत्ते) ही हों । वे चरण मणियों से निर्मित घुंघरूओं की झकारों से गुन्जायमान थे, देव उन चरणों की सेवा करते थे, अत्यंत कोमल थे एवं नख रूपी चन्द्रमा की किरणों से वे व्याप्त थे । केले के स्तम्भ के सदृश उनकी जंघा अत्यन्त मोहक प्रतीत होती थी एक काँची देश में निर्मित शाल से ढँका हुआ उसका कटिमण्डल अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता था । उनका हृद् - प्रदेश यौवन की कुन्जी के समतुल्य दो उरोज रूपी कुम्भों से शोभायमान था एवं उस पर पड़ा हुआ दिव्य हार उनकी शोभा को द्विगुणित कर रहा था । उनके दोनों कर (हाथ) कंकणों से सुशोभित थे, भगवान की सेवा करने तत्पर थे, कमलनाथ की शोभा को परास्त करते थे एवं अत्यन्त मनोहर थे । उनका कण्ठ गीत एवं स्वर की माधुरी से शोभायमान था एवं कण्ठाभरण से अलंकृत था । उनका गण्डदेश कोमल था, मनोहर था एवं पुत्र के आलिंगन हेतु सदैव तत्पर था । उनक मुख की कान्ति चन्द्रमण्डल के समतुल्य थी । वह सरस्वती के आलय (गृह) के समकक्ष संसार में शोभायमान थी । उनके दोनों कर्ण श्रुतज्ञान से सुशोभित थे एवं श्रुतदेवता की पूजन सामग्री के सदृश कर्णों में धारण किए हुए आभरणों की रचना से अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत हो रहे थे। उनके नयन स्निग्ध थे, मनोहर थे, विभ्रम-विलास युक्त थे, तीर्थंकर भगवान के मुखकमल दर्शन के लिए लालायित थे एवं कज्जल से सुसज्ज थे ॥२५०॥ उसका मस्तक भौरे समतुल्य कृष्ण केशराशि से सुशोभित था, पुष्प- गन्ध आदि से सुगन्धित था एवं सच्चे देव- गुरु को ही नमस्कार करता था । पुण्य ही उसकी जननी थी, लज्जा ही उसकी सखी थी एवं गुण ही उसके परिजन थे । वह दिव्य वस्त्र धारण किए हुए थी, उत्तम श्रृंगार रचना से सुशोभित थी एवं ऐसी प्रतीत होती थी मानो ब्रह्मा (नामकर्म) ने कोमल एवं मनोहर परमाणुओं से ही उसकी रचना की हो। इस संसार में कवियों ने नारियों के जितने भी उत्तम लक्षणों का वर्णन किया है, वे समस्त महादेवी ऐरा को शुभ काय में विद्यमान थे । हम वीतराग हैं, इसलिए हमने उन लक्षणों का विस्तृत वर्णन नहीं किया क्योंकि श्रृंगार रस की पुष्टि होने से मनुष्यों के हृदय में राग की वृद्धि होती है । जिस प्रकार इन्द्र को अपनी इन्द्राणी प्रिय होती है, उसी प्रकार रानी ऐरा अपने पति को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी, उत्कृष्ट प्रणय की पात्री श्री शां ति ना थ पु रा ण १८१
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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