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________________ श FFFF . गगनचुम्बी हैं, द्वार आदि से कोट शोभायमान है जो अत्यन्त विशालकाय भी है तथा परिवार एवं सेवकों से भरा है, सुन्दर है, अनेक ऋद्धियों से सुशोभित है, संगीत एवं वादित्रों के शब्दों में गुन्जायमान है। उस मन्दिर में समस्त आवश्यक द्रव्य (पदार्थ) यथास्थान पर रखे हुए हैं । उनके चतुर्दिक अन्य भी लघुकाय (छोटे-छोटे) धवल (श्वेतवर्ण) भवन हैं, जो ऐसे प्रतीत होते हैं-मानो चन्द्रमा के चतुर्दिक छिटके तारे ही हों । उस राज्य में दुर्द्धर शत्रुओं को पराजित करनेवाले काश्यप गोत्र में उत्पन्न महाराज अजितसेन शासन करते थे । उनकी रानी का नाम प्रियदर्शना था । वह अनिंद्य सुन्दरी थी, अनेक गुणों से सुशोभित थी एवं बालचन्द्र आदि शुभ स्वप्नों के अवलोकन का सौभाग्य उसे प्राप्त था । राजा-रानी दोनों के पुण्य-कर्म के उदय से पूर्वोक्त ब्रह्म स्वर्ग से चय कर श्रेष्ठ गुणों के पुन्ज विश्वसेन नामक पुत्र उनके हुए थे । महाराज विश्वसेन तीन ज्ञान के धारी थे, अनेक राजे उनके चरण कमलों की सेवा करते थे। वे धर्मात्मा तथा ज्ञानी पुरुषों की विनय करते थे ॥२३०॥ श्री तीर्थंकर भगवान के वे परम भक्त थे, प्रजाजन को प्रियंकर थे, परिवार के सदस्यो को सुख देते थे । वे राज्य का समस्त भार वहन करते थे, नयनाभिराम थे, धर्मात्मा थे, ज्ञान-विज्ञान में प्रवीण थे, बुद्धिमान थे एवं विद्वान थे । उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त थीं । वे ओजस्वी वक्ता थे, उनकी कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त थी अर्थात त्रिभुवन में वे प्रसिद्ध थे। देव-मनुष्य-विद्याधर सर्वजन उनकी सेवा करते थे । मुकुट, कुण्डल, हार, अंगद, केयूर, कंकण आदि आभूषणों से तथा दिव्य माला एवं वस्त्रों से महाराज विश्वसेन इन्द्र के समतुल्य शोभायमान थे । अथानन्तर-गान्धार देश के गान्धार नगर में धर्म के प्रभाव से महाराज अजितन्जय राज्य करते थे । उनकी सौभाग्यशालिनी रानी का नाम अजिता था । उन दोनों के ऐरा नाम की पुत्री हुई थी, जो सनत्कुमार स्वर्ग से चय कर आई थी । यौवन अवस्था प्राप्त होने पर रूपवती सुन्दरी ऐरा का विवाह महाराज विश्वसेन के साथ विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ था । महारानी ऐरा महाराज विश्वसेन की पटटरानी थी, उनकी प्रिय थीं, समस्त प्रजाजन उनका आदर सत्कार करते थे एवं वह लावण्य रस का भण्डार थीं । सुन्दर अंग-प्रत्यंगों को धारण करनेवाली वह रानी रूप-लावण्य, कान्ति, लक्ष्मी, बुद्धि, दीप्ति एवं विभूति से इन्द्राणी के सदृश शोभायमान थीं। वह अपनी कान्ति से चन्द्रमा की कला के सदृश प्रजाजन को आनन्द देती थीं एवं ऐसी प्रतीत होती थीं, मानो देवागंनाओं के रूप का समस्त सार लेकर ही उनकी रचना हुई हो ॥२४०॥ वह मनोहर थीं, मनोज्ञ थीं, 4444 १८०
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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