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________________ होती है, मानो पुण्यवान देवों को धर्मसाधन करने के लिए ही वह आह्वान कर रही है। उत्तम पदार्थों से भरे हुए राजमार्ग ऐसे प्रतीत होते थे, मानो सुन्दर चरित्रवालों की सेवा करता हुआ स्वर्ग-मोक्ष का पथ ही हो । उस नगरी में श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा वर्णित अहिंसा रूप धर्म ही प्रतिदिन मुनि तथा गृहस्थों के द्वारा धारण किया जाता है । वहाँ पर इहलोक तथा परलोक सम्बंन्धी मंगल कार्यों में तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए गृहस्थों के द्वारा श्री तीर्थंकर ही आराध्य माने जाते हैं तथा उन्हीं की ही पूजा होती है ॥२१० ॥ उस हस्तिनापुरी नगरी के चतुर्दिक स्थित बाह्यवर्ती उद्यान समतुल्य जन्तु रहित वनों में ध्यानादिक की सिद्धि के शां लिए कामना रहित योगी एवं चतुर ( प्रवीण) मुनि निवास किया करते हैं । कोट, तोरणों, मनोहर, शां धर्मोपकरणों, शिखरों पर लगी हुई ध्वजाओं के समूह, गीत-नृत्य-वाद्य आदि का कर्णप्रिय कोलाहल, ति शताधिक स्तोत्रों के उच्चारण की ध्वनि तथा धर्मात्मा नर-नारियों से वहाँ के जिनालय धर्म के सागर के ति श्री श्री ना ना थ थ समतुल्य उत्तम प्रतीत होते हैं । शुद्ध वस्त्र धारण किए, कर (हाथ) में पूजा के सामग्री लिए जिनालयों की ओर गमन करती हुई नारियाँ देवांगनाओं के समतुल्य प्रतीत होती हैं । कितनी ही रूपवती रमणियाँ श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा कर अपने निवास की ओर प्रत्यागमन करती हुईं अप्सराओं के समरूप शोभामयान होती हैं । रूप-लावण्य से मनोहर कितनी ही नारियाँ श्रीजिनालय में गीत-नृत्य करती हुईं किन्नरियों के सदृश प्रतीत होती हैं । वहाँ के गृहस्थ प्रातःकाल ही शैय्या त्याग कर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर सदैव - सामायिक आदि धर्मध्यान किया करते हैं । पात्रदान देने में तत्पर समस्त दानी गृहस्थ श्रावक मुनियों को दान देने के निमित्त मध्याह्न ( दोपहर ) के समय द्वारापेक्षण किया करते हैं । दृढ़वती पुरुष संध्या के समय प्रतिदिन पन्च- नमस्कार मन्त्र का जप - सामायिक एवं कायोत्सर्ग किया करते हैं । धर्मध्यान में तत्पर रहनेवाले वहाँ के पुरुष मोक्ष प्राप्त करने के लिए अष्टमी एवं चतुर्दशी के दिन गृहस्थी सम्बन्धी समस्त आरम्भ त्याग कर प्रोषधोपवास किया करते हैं ॥ २२०॥ वहाँ के नर-नारी धर्मपालन करने के लिए गृहस्थों के योग्य समस्त व्रतों एवं विशेषकर शीलव्रतों का पालन करते हैं । वहाँ के निवासी धर्मात्मा हैं, दानी हैं, सुन्दर हैं, धीर-वीर हैं, शीलव्रतों का पालन करनेवाले हैं, सम्यक्ज्ञानी हैं एवं सम्यग्दृष्टि हैं । पुण्यकर्म के उदय से वहाँ की नारियाँ रूपवती, हावभाव आदि में चतुर, लावण्य रूपी समुद्र की लहर के सदृश प्रतीत होती हैं । उस नगर के मध्य भाग के उत्तरी ओर स्थित भव्य राजमन्दिर किसी पर्वत के शिखर के सदृश 4 पु रा ण 4 पु रा ण १७९
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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