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( कामवेदना ) रहित, राग रहित तथा स्वभावत्या उत्पन्न होनेवाला सुख उन्हें सदैव उपलब्ध रहता हैं । अहमिन्द्रों के कामवेदना से रहित जो स्वाभाविक सुख होता है, वह प्रवीचार से होनेवाले सुख से भी असंख्यातगुणा अधिक है । इस संसार में समस्त इन्द्रियों को तृप्त करनेवाला जो उत्कृष्ट सुख है, वह सब पुण्य कर्म के उदय से विरागी देवों को होता है । एक हस्त उच्च महा दैदीप्यमान उनका उत्तम शरीर समचतुरस्र - संस्थान से अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होता है । दोनों अहमिन्द्रों की तैंतीस सागर की आयु थी तथा धर्मध्यान की कारणभूत उत्कृष्ट शुक्लवेश्या थी। तैंतीस सहस्र ( हजार) वर्ष व्यतीत हो जाने पर वे दोनों तृप्ति प्रदायक अमृतमय मानसिक दिव्य आहार ग्रहण करते थे । तैंतीस पक्ष अर्थात् साढ़े सोलह मास व्यतीत शां होने पर वे दोनों ही अहमिन्द्र समस्त दिशाओं को सुगन्धित करनेवाला स्वल्प-सा उच्छ्वास लेते थे ॥ १८० ॥ वे दोनों अहमिन्द्र अपने अवधिज्ञान रूपी दीपक से लोकनाड़ी पर्यंत समस्त मूर्त, योग्य द्रव्यों को पर्याय ि सहित अवलोकते ( देखते ) थे । उनकी श्रेष्ठ विक्रिया ऋद्धि भी लोकनाड़ी तक समस्त कार्य करने एवं ना अनेक रूप धारण करने में समर्थ थी । परन्तु वे दोनों ही अहमिन्द्र वीतरागी थे, इस स्वर्गलोक में भी मुनिराज के समान कामना रहित थे; इसलिये वे कभी विक्रिया का प्रयोग नहीं करते थे । मुनियों की जिस प्रकार ऋद्धि से उत्पन्न हुई आभरण रहित दैदीप्यमान आहारक काया होती है, उसी के समान दोनों अहमिन्द्रों की काया थी । श्री जिनेन्द्रदेव भगवान ने जिस अत्यन्त काम्य एवं उत्तम सुख का वर्णन किया है, वह उन दोनों अहमिन्द्रों के शुभ कर्म के उदय से पूर्णरूपेण प्रकट हुआ था । इस प्रकार पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से प्राप्त सुखामृत रूपी समुद्र के मध्य (बीच ) मे वे दोनों ही अहमिन्द्र निमग्न हो ( डूब) रहे थे ।
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अथानन्तर-षट् (छः) खण्डों से शोभायमान सरिता (नदी) एवं विजयार्द्ध पर्वत से विभूषित इसी मनोहर भारतवर्ष में आर्यखण्ड शोभायमान है । उसके मध्य भाग में समस्त प्रकार के धान्यों का भण्डार तथा विपुल संख्या में धर्मात्मा पुरुषों से भरा हुआ कुरुजांगल नाम का देश है । वहाँ के मनोहर वनों में वृक्षों के नीचे वज्रासन से विराजमान हो कितने ही मुनि अनेक प्रकार का ध्यान करते हैं, कितने ही सिद्धान्त का पाठ करते हैं, कितने ही काया से ममत्व त्याग कर कायोत्सर्ग धारण करते हैं तथा कितने ही धर्मोपदेश करते हैं ॥ १९०॥ वहाँ की सरिताओं के मनोहर तथा शीतल तटों पर ध्यान - अध्ययन में तत्पर तथा
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