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________________ 4 Fb PF F हुए गन्ध-अक्षत आदि द्रव्यों से भक्तिपूर्वक श्रीजिन प्रतिमाओं का पूजन किया करते थे । वे दोनों ही अहमिन्द्र मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपने अवधिज्ञान से तीनों लोकों में विराजमान समस्त प्रतिमाओं को प्रत्यक्ष जानकर सर्वदा उन्हें नमस्कार किया करते थे । अपने अवधिज्ञान से समकालीन तीर्थंकर भगवान के पंच-कल्याणकों को ज्ञात कर वे नवधा भक्ति से मस्तक नवा कर उन्हें नमस्कार करते थे ॥१६०॥ जिनेन्द्र भगवान के गुण समूहों में अनुरक्त हुए वे दोनों ही अहमिन्द्र उनके यथार्थ गुण समूहों को वचनों के द्वारा | वर्णन कर सदैव उनकी स्तुति किया करते थे। वे दोनों ही बुद्धिमान अहमिन्द्र श्री जिनेन्द्रदेव का पद प्राप्त करने के लिए तथा पापों का विनाश करने के लिए प्रतिदिन अपने चित्त में अनन्त गुणों से सुशोभित श्री जिनेन्द्रदेव का स्मरण किया करते थे । जो अहमिन्द्र अनिमंत्रित (बिना आमन्त्रित हुए) स्वयं ही आ जाते थे, उनके साथ वे दोनों अहमिन्द्र मोक्ष प्राप्त करने लिए परस्पर पुण्य प्रदायक धर्मगोष्ठी किया करते थे । महान् ऋद्धि को धारण करनेवाले वे अहमिन्द्र केवल मोक्ष की आकांक्षा से पुण्य प्रदायक तत्वज्ञान से ओतप्रोत तथा सारभूत श्री जिनेन्द्रदेव के चरित्र (जीवनी) की कथा (चर्चा) सदैव किया करते थे । यदि वे अहमिन्द्र अपनी इच्छानुसार विहार करने जाते, तो अपने निवास के समीपस्थ उद्यान में सुन्दर सरोवरों की तटवर्ती भूमि पर क्रीड़ा किया करते थे । परक्षेत्र में उनका विहार कभी नहीं होता, क्योंकि शुक्ललेश्या के प्रभाव से उन्हें अपनी वस्तु के भोगों में ही सन्तोष होता है । उनका स्थान अनेक प्रकार की विभूति से भरा हुआ है तथा कभी न विनष्ट होनेवाले सुख की खान है, इसलिये उन्हें अपने स्थान से जो अनुराग है, वह अन्य किसी स्थान से नहीं है । इस स्थान में- मैं ही इन्द्र हूँ, मेरे अतिरिक्त अन्य कोई इन्द्र नहीं है'-इस प्रकार के आत्मसुख को वे प्राप्त होते हैं, इसीलिये वहाँ के वे उत्तम देव 'अहमिन्द्र' के नाम (उपाधि) से प्रसिद्ध हैं । उनमें ईर्ष्या, मत्सर, आत्मप्रशंसा, अष्ट प्रकार का मद, दीनता, बैर, द्वेष, शोक, भय, अरति, मानसिक दुःख इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, दुर्भगता तथा कामाग्नि आदि दोष सर्वथा नहीं हैं । समस्त अहमिन्द्र मन्दकषायी होते हैं तथा धर्मध्यान में सर्वदा तत्पर रहते हैं, इसलिये उनमें परस्पर स्वाभाविक उपमा रहित स्नेह सदैवबना रहता है । वे अनुराग से केवल अरहन्तों की पूजा किया करते हैं तथा सर्वप्रकारेण आनन्दित तथा सुखी होते हुए क्रीड़ा किया करते हैं । चिन्ता रहित, प्रमाण रहित आत्मा के परमानन्द के उत्पन्न हुआ सुख, जो कि मुनियों के द्वारा जानने योग्य है, उनके सदैव बनार हता है । प्रवीचार 4 Fb E5 १७६
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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