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प्रतिबिम्बों को धारण करती हुईं उसकी दीवारें 'उत्तम प्रतीत होती हैं, मानो कोई दूसरा अपूर्व स्वर्ग ही हो । यह विमान रनों की किरणों से प्रकाशित है, इसलिए इसमें दिन-रात्रि का ज्ञान कभी नहीं होता। यहाँ पर मणियों की किरणों से सदैव दिवस की शोभा बनी रहती है। यह विमान समस्त प्रकार के सुखों का प्रदाता है, इसलिए इसमें कभी ऋतुओं का परिवर्तन नहीं होता एवं सर्व प्रकारेण सुख प्रदायक एक-सा काल ही सदैव बना रहता है । यहाँ लटकती हुईं कोमल तथा सुगन्धित पुष्पमालायें भव्य प्रतीत होती हैं, मानों इन्द्रों की सज्जनता को ही घोषित कर रही हों । यहाँ पर स्थान-स्थान पर मोतियों की मालाएँ शोभायमान हैं, वे ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो अपनी शोभा से उज्ज्वल दन्त पंक्ति की किरणों की ओर व्यंग्यपूर्वक मुस्करा रही हों । इस प्रकार जिसमें स्वाभाविक सर्वोत्तम रचना हो रही है, जो अलौकिक सुन्दरता की खान है तथा जिसका समस्त स्थान सुख प्रदायक है, ऐसे सर्वार्थसिद्धि विमान की अत्यन्त कोमल उत्पाद शैय्या में वे दोनों ही अहमिन्द्र क्षण भर में ही षट (छहों) प्रकार की पर्याप्ति को प्राप्त हो गए थे । वे दोनों ही अहमिन्द्र अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त अवयवों (अंगो) सहित पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हो गए थे । उन दोनों की काया सप्त धातु, मल, नख, केश आदि से विहीन थी । वे स्वेद (पसीना), खेद आदि से रहित थे तथा सुन्दर लक्षणों से सुशोभित थे, स्वाभाविक रूप से ही सुन्दर (मनोज्ञ) थे । व्याधि, नेत्रस्पन्दन (आँखों की टिमकार) आदि से वे रहित थे । वे नेत्रों को आनन्द प्रदान करने वाले थे । मनोहर, उपमा रहित तथा सुख की खान उनकी काया समस्त शुभ तथा स्निग्ध (चिकने) परमाणुओं से निर्मित थी । वे अत्यंत कोमल थे तथा शैय्या पर चन्द्रकुण्डल के समान मनोहर प्रतीत होते थे ॥१५०॥ अपनी काया (शरीर) की दिव्य कान्ति से आलोकित सिंहासन पर विराजमान वे दोनों ही इन्द्र प्रताप में सूर्य-चन्द्रमा के सदृश शोभायमान थे । उनकी ग्रीवा में दिव्य हार था, मस्तक पर सुन्दर मुकुट था, कर्णों में कुण्डल थे, भुजाओं में केयूर थे तथा किरणों की मूर्ति के समान वे शोभायमान थे । देवोपम वस्त्र, |
१७५ माला, केयूर आदि दिव्य आभूषणों से तथा अपनी स्वाभाविक कान्ति से वे दोनों अहमिन्द्र पुण्य की राशि के सदृश जाज्वल्यमान थे । दोनों की वैक्रियक काया अणिमादि गुणों से विभूषित थी, समस्त दिशाओं को सुगन्धित करती थी एवं स्वभावतया ही सुन्दर थी । असंख्यात ऋद्धियों के सागर वे दोनों ही अहमिन्द्र अकृत्रिम रत्न-सुवर्णमय श्री जिन-मन्दिर में समस्त अभ्युदयों की सिद्धि के लिए संकल्प मात्र से ही उत्पन्न
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