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________________ EFFFF के सुखों का प्रदायक है, मुक्ति का कारण है तथा क्षमा-मार्दव आदि के भेद से दश प्रकार का है-इस प्रकार भी वे मुनिराज अपने हृदय में ध्यान धारण करते थे । इस प्रकार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने से उनका वैराग्य दूना हो गया था तथा परलोक में समस्त कार्य करवाने वाला विवेक उनके हृदय में जाज्वल्यमान हो गया था । वे मुनिराज मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय-यह चारों प्रकार का धर्मध्यान धारण करते थे । मुनिराज ने वैराग्य से सुगन्धित हुए अपने चित्त से संकल्प-विकल्प त्याग दिये थे तथा उन्होंने प्रमाद का परित्याग कर कर्मों का नाश करनेवाली श्रेणी में आरोहण किया था । वे धीर-वीर मुनिराज दुःख के सागर कर्म रूपी ईंधन को प्रज्वलित करने के लिए अग्नि तथा दुःख रूपी दावानल के लिए मेघ के सदृश सर्वप्रथम शुक्लध्यान का चिन्तवन करते थे ॥१३०॥ मुनिराज मेघरथ ने अपने अनुज के संग सर्वप्रथम शुक्लध्यान से अशुभ कर्मों का विनाश कर उत्तम धर्म का सम्पादन किया था । मुनिराज ने अतिचार रहित स्वर्ग-मोक्ष प्रदायक चारों आराधनाओं का विधिपूर्वक आराधन किया था। वे प्रयत्नपूर्वक आत्मध्यान से प्राणों का त्याग कर रत्नत्रय के फल से 'सर्वार्थसिद्धि' में जाकर विराजमान हुए । यह सर्वार्थसिद्धि विमान मुक्ति-शिला से मात्र बारह योजन नीचे है तथा अन्य समस्त विमानों से ऊपर है । यह सर्वोत्तम है, इसलिए इसको 'अनुत्तर विमान' भी कहते हैं । यह विमान एक लाख योजन चौड़ा है, सूर्य मण्डल के समान है तथा समस्त पटलों के अन्त में चूड़ा रत्न के समान शोभायमान है । सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होनेवाला पुण्यवान जीवों के सुख तथा धर्मादि बिना प्रयत्न के सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए उसका 'सर्वार्थसिद्धि' नामकरण सार्थक प्रतीत होता है । यह विमान समस्त विमानों के शिखर (मस्तक) पर विराजमान होता हुआ अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होता है । इस संसार में इस विमान से उत्तम (श्रेष्ठ) अन्य कोई विमान नहीं है, यह विमान दिव्य है, समस्त ऋद्धियों से भरपूर है तथा असंख्य सुखों का सागर है, इसीलिए संसार में यह विमान 'अनुत्तर' कहलाता |१७४ है । इसका यह नाम भी सार्थक है, क्योंकि संसार में इसकी कोई उपमा नहीं है । यह विमान अत्यन्त विशालकाय है तथा बहुत उच्च है । जो मुनि रत्नत्रय सहित हैं, मुक्ति रूपी रमणी में आसक्त हैं, दुर्धर तपस्वी हैं तथा संसार-सागर से उत्तीर्ण होनेवाले हैं, उन मुनियों को विशेष रूप से सुख देने की कामना से मानों शिखर पर फहराती हुई अपनी ध्वजाओं से यह विमान आमंत्रित कर रहा है ॥१४०॥ देवों के Fb F FE
SR No.002238
Book TitleShantinath Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
PublisherVitrag Vani Trust
Publication Year2002
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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